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इन्द्रिय-संवर का राजमार्ग ७८७ कि सुख इन्द्रियजन्य है और अमुक-अमुक पदार्थों, साधनों और व्यक्तियों से मिलता है। फिर वे सारी जिंदगीभर उन्हीं कल्पित विषय साधनों को ढूँढने-संजोने में लगे रहते हैं। सुखाकांक्षा की तृप्ति के लिए अभीष्ट पदार्थ जुटाते हैं। उन्हें तृप्ति के क्षण सुखद लगते हैं। किन्तु इससे पूर्व और पश्चात् बेचैनी, जलन (ईर्ष्या), पश्चात्ताप एवं ग्लानि की मनःस्थिति बनी रहती है।
जैसे-जिह्वा से स्वाद लेने में सुख मानने वाले लोगों को जब तक मनचाही स्वादिष्ट वस्तुएँ नहीं मिलतीं, तब तक उनके मन में बेचैनी और ललक बनी रहती है, उन वस्तुओं की प्राप्ति की प्रतीक्षा और उत्सुकता भी उभरती रहती है। जिन क्षणों में वे स्वादिष्ट वस्तुएँ खाई जाती हैं, उतनी देर क्षणिक सन्तोष रहता है। पेटभर खा चुकने के बाद अरुचि हो जाती है, परोसने वाले के आग्रह को अस्वीकार करना पड़ता है। स्वादलिप्सावश मात्रा से अधिक खा लेने पर पेट गड़बड़ाता है, अजीर्ण और गैस की शिकायत हो जाती है। जिह्वेन्द्रियसंवर (संयम) की दृष्टि होती तो न तो वह विषयों में आसक्त होता, न सुख मानता और न ही उनकी प्राप्ति, तृप्ति और पश्चात्ताप के लिए होने वाला दुःख उठाता।
अविकसित एवं असम्यक्दृष्टि वाले लोगों की यह सुखलिप्सा जिन उपायोंआधारों को अपनाने के लिए बाध्य करती है, वे सभी थोथे और पापसव के मार्ग सिद्ध हुए हैं। उनका आरम्भ जलन, अतृप्ति और अशान्ति से होता है, और अन्त ऐसी स्थिति में होता है, जिसे निराशा, खीज, पश्चात्ताप एवं ग्लानि का नाम दिया जा सकता है। इन्द्रियजन्य सभी सुखों की ऐसी ही स्थिति है। - जब वे कुलबुलाते हैं तो अज्ञानी मानव यह नहीं समझ पाता कि इनका सिर्फ शरीर से सम्बन्ध है, आत्मा से नहीं। वह उन्हें स्वजन समझकर उनकी तृष्णा बुझाने लग जाता है, जिससे संवर के बदले पापासव में और अवनति में आत्मा को धकेलता रहता
... इन्द्रियसुखलिप्सा का दूसरा चरण है, काम-सुख, जो जननेन्द्रिय की तृप्ति से जनित माना जाता है। उसका भी यही हाल है। मुद्दत पहले से काम-सुख की तप्ति के रंगीन सपने संजोये जाते हैं. और सन्दरी के मिलने के उमंगें छाई रहती हैं। वह बेचैनी, आतुरता और प्रतीक्षा का समय है। संयोग के कुछ क्षण मादक भी हो सकते हैं। पर इसके पश्चात् शरीर और मन में शिथिलता और ग्लानि आती है। उन्माद का आवेश उतर जाने पर ऐसा पश्चात्ताप भी होता है कि जीवन रस की मात्रा को इस प्रकार नष्ट कर देने से असमय में ही वृद्धता, रुग्णता और अकालमृत्यु का वरण करना होगा।
. १. अखण्ड ज्योति अक्टूबर १९७३ से भावांश ग्रहण पृ. ३
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