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इन्द्रिय-संवर का राजमार्ग
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कषायों पर विजय पाना सम्भव नहीं होता।' इन्द्रियों की शक्ति और कार्यक्षमता का सम्यक् उपयोग करना तथा उनका प्रयोग करते समय राग-द्वेष या वासना न आ जाए, इसकी निरन्तर चौकसी रखना कि इन्द्रियाँ और मन राग-द्वेषादि में प्रवृत्त हो जाए वस्तुतः इन्द्रिय-संवर की साधना का पहला अभ्यास पाठ है। ____ वैदिक ब्रह्मपुराण में इन्द्रियवशीकरण का माहात्म्य बताते हुए कहा गया है"इन्द्रियों को वश करने वाला (इन्द्रियजयी) मनुष्य जहाँ-जहाँ भी निवास करता है, वहीं कुरुक्षेत्र, प्रयाग तथा पुष्कर आदि तीर्थ बन जाते हैं। इन्द्रियों का विषयों में प्रवृत्त न होना शक्य नहीं, रागद्वेष का त्याग करना हितावह
यही कारण है कि आचारांगसूत्र में इन्द्रिय-संवर या इन्द्रियवशीकरण के सन्दर्भ में स्पष्ट कहा गया है-'यह शक्य नहीं है कि कानों में पड़ने वाले अच्छे या बुरे शब्द सुने न जाएँ। अतः कर्णेन्द्रिय (श्रवणेन्द्रिय) का नहीं, किन्तु श्रवणेन्द्रिय द्वारा गृहीत शब्दों के प्रति जागृत होने वाले राग-द्वेष का परित्याग करना चाहिए।' “यह भी शक्य नहीं है कि
आँखों के सामने आने वाला अच्छा या बुरा रूप न देखा जाए, अतः नेत्रेन्द्रिय का नहीं किन्तु नेत्रों द्वारा गृहीत रूप के प्रति जाग्रत होने वाले राग-द्वेष का परित्याग किया जाए।" "यह शक्य नहीं है कि नाक के समक्ष आए हुए सुगन्धित या दुर्गन्धित पदार्य सूंघने में न आएँ। अतः घ्राणेन्द्रिय का नहीं किन्तु नासिका द्वारा ग्रहण किये जाने वाली गन्ध के प्रति उत्पन्न होने वाले राग-द्वेष की वृत्ति का त्याग करना चाहिए।" "यह भी शक्य नहीं है कि जीभ पर आया हुआ अच्छा या बुरा रस चखने में न आए, अतः जिह्वेन्द्रिय का नहीं, किन्तु जीभ के ऊपर चढ़े हुए (गृहीत) रस के प्रति जगने वाले राग-द्वेष को परिवर्जित करना चाहिए।" "यह शक्य नहीं कि शरीर (त्वचा) से स्पृष्ट होने वाले अच्छे या बुरे (अष्टविध) स्पर्श की अनुभूति न हो। अतः स्पर्शेन्द्रिय का नहीं, किन्तु स्पर्शेन्द्रिय के सम्पर्क में समागत स्पर्श के प्रति मन में उदित होने वाले राग-द्वेष का परित्याग करना चाहिए।"
. भगवद्गीता में भी स्पष्टतः कहा गया है कि "प्रत्येक इन्द्रिय के विषय (अर्थ) के साथ राग और द्वेष स्थित है-सुषुप्त है। इन राग और द्वेष के वश में नहीं होना चाहिए, ये की इस (इन्द्रिय-संवर-साधना) के प्रतिपक्षी या शत्रु है।"
. योगशास्त्र प्रकाश ४, श्लोक २४
इन्द्रियाणि वशे कृत्या यत्र-यत्र वसेन्नरः। . • तत्र-तत्र कुरुक्षेत्र प्रयागं पुष्कर तथा। ३. (क) आचारांगसुत्र श्रु. २ अ. ३ उ. ५, स्त्र १३१ से १३५ तक । (ख) इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषो व्यवस्थितौ। तयोर्नवशमागच्छेती ह्यस्य परिपन्थिनौ॥
___-गीता अ. ३ श्लोक ३४
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ब्रह्मपुराण
३१ से १३५
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