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७७२ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आम्नव और संवर (६)
इन्द्रियों द्वारा होने वाला ज्ञान : सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष
इन्द्रियों द्वारा जो भी बोध होता है, वह प्रत्यक्ष (प्रकट) रूप में होता है। जैसे-कान से प्राणी सुनता है, आँखों से देखता है, नाक से सूंघता है, जीभ से चखता है, और त्वचा से स्पर्श करता है। ये सब प्रत्यक्ष हैं, स्थूल दृष्टिगोचर हैं, प्रकट में अनुभव-सम्पृक्त हैं। ___यद्यपि जैनन्याय में इन्द्रियों और मन की सहायता से होने वाले ज्ञान को परोक्ष कहा गया है जबकि अन्य दर्शनों ने पदार्थों के साथ इन्द्रिय-सन्निकर्ष से होने वाले ज्ञान को प्रत्यक्ष कहा है। इस प्रकार नैयायिकों एवं दार्शनिकों के साथ प्रत्यक्ष ज्ञान के विषय में विवाद उपस्थित होने पर बाद के जैन नैयायिकों ने इन्द्रिय-नोइन्द्रिय से होने वाले ज्ञान को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष और सीधा आत्मा से जो इन्द्रिय-निरपेक्ष ज्ञान होता है, उसे पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहा।
___ इसी सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष की दृष्टि से सुनने, देखने, सूंघने, चखने और स्पर्श करने का ज्ञान प्रकट रूप में होता है, इसीलिए इन्द्रियों को अक्ष' कहा गया है। स्थूल रूप से इन्द्रियों द्वारा पांच प्रकार का ज्ञान भी होता है, क्रिया भी। पहले इन्द्रियों के द्वारा सुनने, देखने आदि की क्रिया होती है, तदनन्तर उनके द्वारा विषय या वस्तु का बोध होता है।' इन्द्रियों की संख्या और सांसारिक प्राणियों की इन्द्रियों में तारतम्य
इसीलिए जैनदर्शन ने पांच प्रकार की इन्द्रियां बताई हैं-श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय। इन्हीं पांचों इन्द्रियों द्वारा प्राणी जगत् से सम्पर्क स्थापित करता है। आत्मा (जीव) जगत् के सजीव-निर्जीव पदार्थों का बोध इन्द्रियों की सहायता से करता है। मन को नोइन्द्रिय कहा गया है। वैदिक दर्शनों में इन पांचों के अतिरिक्त ५ कर्मेन्द्रियाँ तथा कहीं-कहीं मन के सहित ११ इन्द्रियाँ मानी गई हैं। परन्तु जैनदर्शन ने कर्मेन्द्रिय को अलग न मानकर १० बलों (प्राणों) की धारणा में वचन बल प्राण, कायबल प्राण और श्वासोच्छवास बल प्राण में समाविष्ट कर लिया है।
संसार में सभी प्राणी पांचों इन्द्रियों वाले नहीं होते। कई एक इन्द्रिय वाले, कई दो इन्द्रिय वले, कई तीन और कई चार इन्द्रिय वाले होते हैं। पांच इन्द्रियों वाले सभी प्राणियों की इन्द्रियाँ एक सरीखी कार्य नहीं करतीं, वह भी उनके अपने-अपने मति श्रुत ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम के अनुसार तथा चेतना के विकास-अविकास के अनुसार विषयों का ग्रहण और बोध कर सकती हैं। सभी प्राणियों के द्वारा समान बोध और वस्तुओं का या विषयों का समान रूप से ग्रहण नहीं होता, इसके अन्य कारण भी हैं। १. देखें-अनुयोगद्वार, प्रमाण-नय-तत्त्वालोक, तथा तर्कसंग्रह, न्यायसिद्धान्त मुक्तावली आदि ग्रन्थों
में प्रत्यक्ष-परोक्ष प्रमाण का विवरण। २. (क) स्पर्शन-रसन-प्राण-चक्षुःश्रोत्राणि ! पंचेन्द्रियाणि, द्विविधानि।
-तत्त्वार्थसूत्र अ. २ सू. २०, १५, १६ (ख) देखें-प्रज्ञापना सूत्र का १५वाँ इन्द्रियपद।
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