________________
७६४ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६)
वाणी के प्रयोग के दो प्रमुख कारण
जैनाचार्य पूज्यपाद वाणी के प्रयोग के दो कारण बताए हैं। उन्होंने यह विश्लेषण किया है कि मनुष्य को बोलने की आवश्यकता किसलिए होती है ? इसके दो कारण मुख्य हैं - एक कारण तो यह है कि जब मन में चंचलता होती है। मानसिक विकल्प या कल्पनाएँ इतनी अधिक उग्र हो जाती हैं कि व्यक्ति अपनी बात को कहे बिना नहीं रह सकता तब वह बरवस वाणी को मुख से बाहर फेंक देता है।
आपने देखा होगा कि कई व्यक्ति अपने या अपने सम्प्रदाय, मत या पक्ष के विरुद्ध कोई बात सुन लेते हैं, तब वे बिना बोले रह ही नहीं सकते, एकदम उछल पड़ते हैं। कई बार तो वे बिना बुलाए ही टपक पड़ते हैं और आवेश में आकर तीव्रगति से बोलने लगते हैं। दो अधिकृत व्यक्ति परस्पर वार्तालाप कर रहे हों, उस समय भी तीसरा व्यक्ति बिना बुलाए ही बीच में बोलने लगता है और उनके मधुर वार्तालाप को कटु और उत्तेजनाम बना देता है।
प्रायः यह भी देखा जाता है कि कई व्यक्ति मानसिक आवेगों के तीव्र हो जाने पर उसके साथ दूसरा कोई बात करने वाला न भी हो तब भी वे अपने ही आप बोलने लगते हैं, कुछ न कुछ बुदबुदाते रहते हैं। वे अपने मनोगत भावों को आवेश में आकर बाहर फेंकने लग जाते हैं। यह होता है - स्वगत वार्तालाप ।
बोलने का दूसरा प्रयोजन है- 'जनेभ्यो वाक्' अर्थात् जन सम्पर्क | जब व्यक्ति दूसरे के सम्पर्क में आता है तब उसे वाणी का प्रयोग करना पड़ता है। दो परिचित व्यक्ति मिलते हैं तो शिष्टाचारवश कुछ न कुछ बोलते ही हैं। व्यवहार के धरातल पर जो लोग जीते हैं वे यदि शिष्टाचारवश न बोलें तो उसे अच्छा नहीं मानते। यदि वह व्यक्तिं मौनी है तो भी आशीर्वादात्मक मुद्रा से अपने हृदय के भाव व्यक्त करता है।
मन्त्रविज्ञों का मानना है मन्त्रों का जाप जितना सूक्ष्म ध्वनि से होगा उतना ही वह अधिक प्रभावोत्पादक होगा। जाप व्यवस्थित रूप से करने पर ही लाभप्रद होता है। नाभि, हृदय, तालु और अर्धचन्द्रनाद इस क्रम से होता है तो वह ग्रन्थियों का भेदन कर देता है। सूक्ष्म उच्चारण से ग्रन्थियाँ सुलझ जाती हैं। आज्ञा चक्र तक पहुँचते-पहुँचते जब उच्चारण सूक्ष्म से सूक्ष्मतम हो जाता है तब ग्रन्थियों का भेदन चालू हो जाता है, ऐसा अनुभवियों का अभिमत है।
(झ) कुसलवयं उदीरंतो जं वइमुत्तो वि सण्णोहि - बृहत्कल्प भाष्य ४४५१ निशीथ भाष्य ३७ (ञ) पुब्वि बुद्धीए पासेत्ता, ततो वक्कमुदाहरे ।
अचक्खुओव नेयारं बुद्धिमन्नेसए गिरा ।
(ट) सव्वत्थ वि पियवयणं, दुप्पवयं दुज्जणस्स विरक्त करणं ।
- व्यवहार भाष्य पीठिका ७६
- कर्माद्यप्रेक्ष्या ९१
सव्वेसिं गुणगहण मंदकसायण दिवेणम् ॥
(ठ) गिरा हि संवरजुया विसंसती अत्ययता होइ असाहुवादिणी । - वृहत्कल्पभाष्य ४११८
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org