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वचन-संवर की महावीथी ७६३
इसीलिए भगवान् ने वागूगुप्ति के परिप्रेक्ष्य में कहा - "बहुत मत बोलो, न ही बहुत बातें करो। " " दो व्यक्ति बात कर रहे हों, उसके बीच में न बोलो, बिना पूछे कुछ भी मत बोलो।” जहाँ वाद-विवाद के द्वारा कलह, संघर्ष, पारस्परिक वैर- विरोध, ईर्ष्या, द्वेष एवं मनोमालिन्य बढ़ने की आशंका हो, वहाँ साधक को मौन रखने अथवा वाग्गुप्ति करने का निर्देश भी वाणी के संवर का प्रकार है।
इसी प्रकार वाणी-संवर के अभ्यास में क्रमशः स्थूल से सूक्ष्म की ओर लौटना अत्यावश्यक है। स्थूल से सूक्ष्म की ओर बढ़ने के लिए भगवान् ने निम्नोक्त आठ प्रकार की भाषा बोलने का निषेध किया है - ( १ ) कर्कशकारी, (२) कठोरकारी, (३) निश्चयकारी, (४) हिंसाकारी, (५) छेदकारी, (६) भेदकारी (समाज में फूट डालने वाली), (७) सावद्य (पापयुक्त) भाषा एवं (८) मिथ्या भाषा।
कई लोग निरर्थक गपशप करने, व्यर्थ ही अंटसंट बोलने, दूसरे की हंसी-मजाक करने तथा परनिन्दा एवं चुगली करने में अपने समय, शक्ति, नैतिकता एवं धर्म को नष्ट करते हैं। कई लोग हर बात में अपनी बड़ाई और दूसरे की निन्दा करते रहते हैं। यह आत्मप्रशंसा और परनिन्दा भी वाक्संवर के लिए अत्यन्त घातक है। नीच प्रकृति के लोग कलह, बकवास, निन्दा-चुगली एवं निरर्थक हास-परिहास में अपना समय खोते हैं।
“प्रिय, हित, मित, सत्य वचन सदैव सन्तोषकारक एवं दूसरों में अपने प्रति आत्मीयता जगाने वाले होते हैं। वस्तुतः कुशल वचन बोलने वाला ही समिति ( भाषा समिति) और वाग्गुप्ति का पालन करता है।” “हित, मित और विचारपूर्वक बोलना ही वस्तुतः वाणी विनय है।” पहले बुद्धि से परख - विचार कर फिर बोलना चाहिए। अंधा व्यक्ति जिस प्रकार पथप्रदर्शक की अपेक्षा रखता है, उसी प्रकार वाणी बुद्धि की अपेक्षा रखती है। प्रियवचन मन्द कषाय के लक्षण हैं। ऐसा व्यक्ति दूसरों को उपालम्भ देते समय भी मधुर वचन बोलता है, किन्तु बहुत ही नपे-तुले शब्दों में अपनी बात कहता है। स्थूल से सूक्ष्म ध्वनि की ओर जाने के लिए इस प्रकार का अभ्यास करना अत्यावश्यक है। '
१. (क) बहुयं मा य आलवे ? (ख) नापुट्ठो वागरे किं चिं ।
(ग)
- उत्तराध्ययन १ / ४० -उत्तरा १/१४ - आचारांग श्रु. १ अ. ८ उ. १ सू.२०१
अदुवा गुत्ती वइगोयरस्स
(घ) देखें - ठाणांग स्था. ८ (ङ) किच्चा परस्स, जिंद जो अप्पाणं ठवेदु मिच्छेज्ज | सो इच्छदि आरोग्गं परम्मि कडुओसहे पीए ॥ (च) सयं सयं पसंसंता, गरहंता परं वयं ।
- भगवती आराधना २७१
जे उ तत्थ विउस्संति, संसारे ते विउस्सिया || (छ) हिदमिद वयणं भासादि संतोसकरं तु सव्वजीवाणं । (ज) हिय मिय अफरुस वाई, अणुवी भासि वाइयो विणओ | - दशवैकालिक नियुक्ति ३२२
-सूत्रकृताँग १/१/२/२३ - कार्तिकेयानुप्रेक्ष्या ३३४
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