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७६८ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आमव और संवर (६)
लेते हैं। एक ही प्रकार की शब्दाबलि दोनों के अन्तर्मन में आ जाती है। मौन की भाषा अत्यन्त सशक्त और स्पष्ट होती है। शब्दों के माध्यम से हृदय की बात अच्छी तरह समझी जा सकती है और नहीं भी समझी जा सकती है पर अन्तःसम्प्रेषित बात को यथार्थरूप से समझा जा सकता है। अतः वचनसंवर के लिए मौन भाषा या मानस भाषा का विकास आवश्यक है। वाक्गुप्ति से निर्विकारिता
वाक्गुप्ति से निर्विकारिता सहज रूप से प्राप्त होती है। वह क्रोध, मान, माया, लोभ, राग-द्वेष, ईर्ष्या आदि विकारों से बच जाता है। जब वह वाणी का प्रयोग ही नहीं करता तब प्रगट रूप में इन विकारों के आने की कोई गुंजाइश ही नहीं। वाक्गप्ति ही वाकसंवर का पूर्णरूप है। जिसका उद्देश्य निर्विचारता, निर्विकल्पता, निर्वचनता या शब्दातीत अवस्था तक पहुँचना है। उसके लिए निरन्तर अभ्यास की आवश्यकता है। . .. हिमालय की उत्तुंग एवरेस्ट की चोटी पर पहुँचने के लिए तेन सिंह और हिलेरी जैसे पर्वतारोहियों को चिरकाल तक अभ्यास करना पड़ा था। इसी तरह वाक्संवर के सर्वोच्च शिखर पर पहुँचने हेतु प्रथम भाषा-समिति का अभ्यास करना चाहिये। उसके पश्चात् जप, ध्यान, मौन-इंगित मौन, काष्ठमौन और निर्विचार मौन की भूमिका तक पहँचा जा सकता है। निर्विचार अवस्था जो विचार या चिन्तन करते-करते प्राप्त होती है यही विचारातीत, शब्दातीत, विकल्पातीत अखण्डमौन की स्थिति ही वाक्सवर है। कोई भी विचारशून्य व्यक्ति निर्विचारता की स्थिति तक नहीं पहुँच सकता। इस अवस्था तक पहुँचने के लिए प्रथम विचार, वितर्क, विकल्प, चिन्तन अथवा शब्द को माध्यम बनाना ही पड़ता है। शुक्लध्यान के चार चरणों में से.एकत्व वितर्क अविचार नामक द्वितीय चरण है।'
धर्मध्यान के अन्तर्गत जो पदस्थ ध्यान है उसकी भी यही प्रक्रिया है। उसमें साधक एक पद लेता है उस पर चिन्तन प्रारम्भ करता है। चिन्तन करते-करते अचिन्तन की भूमिका तक पहुँच जाता है।
निष्कर्ष यह है वाक्सवर का प्रारम्भ पहले कम बोलकर फिर मौन रखकर अवांछनीय वाणी प्रयोगों से बचकर करना है। उसके पश्चात् दूसरे किसी से न बोलकर किसी पद का वाचिक जप करना फिर उपांशु जप करना और फिर मानस जप करना चाहिये। धर्मध्यान और शुक्लध्यान का अभ्यास क्रमशः बढ़ाना चाहिये। 'बैखरी' ध्वनि से 'मध्यमा' 'पश्यन्ती' ध्वनि तक पहुँचकर अन्त में 'परा' ध्वनि-प्राणमय सूक्ष्मतम ध्वनि तक पहुँच जाना है।
१. स्थानांग स्था. ४ उ. १ सू. ६९ में देखें शुक्लध्यान के ४ पाद
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