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वचन-संवर की महावीथी ७६१
तो होता है, किन्तु प्रसारणकर्ता को कोई लाभ नहीं होता। लैसर रेडियम किरणें फैंकने वाले यंत्रों में कोई निजी प्रभाव नहीं देखा जाता, वे तो उन्हीं स्थानों को प्रभावित करते हैं, जहाँ उनका लक्ष्ययुक्त आघात लगता है। जप प्रयोग में साधक को तथा वातावरण को प्रभावित करने की दुहरी क्षमता मौजूद है।' शब्दवेधी वाण प्रयोग की तरह शब्दवेधी मंत्रप्रयोग प्रयोक्ता के पास वापस लौटते हैं
प्राचीनकाल में शब्दवेधी वाण चलते थे, वे लक्ष्य से टकराते थे, लक्ष्यवेध करते थे और वापस लौटकर उसी (प्रयोग के) तरकश में आ घुसते थे। ऐसे अस्त्रों को काल्पनिक किंवदन्ती मानने की आवश्यकता नहीं। उसका एक स्थूलरूप अभी भी आस्ट्रेलिया के आदिवासी लोगों में मौजूद है, वे ऐसे अस्त्र का प्रयोग करते हैं, जिसका नाम है-बूमरेंग। मंत्र-साधना में भी विशिष्ट शब्द रचना के आधार पर बने तथा विशेष मनःस्थिति में, विशेष विधि-विधान के साथ जिस मंत्रशब्दावली को अनवरत दोहराया जाता है, वह निश्चित ब्रह्माण्ड में भ्रमण करते हुए मूल मंत्र प्रयोक्ता के पास वापस लौट आती है और उसके लिए अतिमहत्वपूर्ण सत्परिणाम उत्पन्न करती है।" वाकसंवर की आवश्यकता क्यों और किसलिए? ' ये सब हुई वाणी, ध्वनि या स्वर के विविध प्रयोगों से लाभ-अलाभ की बातें! भौतिक लाभ होने पर जहाँ आध्यात्मिक, सामाजिक या व्यक्तिगत लाभ बहुत ही कम होता है, वहाँ वास्तविक दृष्टि से देखा जाए तो शब्दशक्ति से आध्यात्मिक लाभ या सामाजिक, नैतिक या धार्मिक लाभ बहुत ही नगण्य है। वासंवर की आवश्यकता पहले जितनी नहीं थी, उतनी आज है, क्योंकि कोलाहल शोर-शराबा, बमों के धमाके, फेक्टरियों और कारखानों की आवाज, विमानों की अधिकाधिक ध्वनि, वाहनों की खड़खड़ाहट आदि अत्यधिक घढ़ गई हैं। शोर प्रदूषण का तन-मन-जीवन पर दुष्प्रभाव .. शरीरविज्ञानियों के अनुसार शोर का मनुष्य के तन-मन एवं जीवन पर अत्यधिक दुष्प्रभाव पड़ता है। कानों को तो क्षति पहुँचती ही है। प्रायः अत्यधिक शोर से कान बहरे हो जाते हैं। कई दफा कान के पर्दे फट जाते हैं। अत्यधिक तेज शोर से धमनियां सिकुड़ने लगती हैं, पाचनक्रिया मन्द हो जाती है, ब्लडप्रेशर बढ़ जाता है, श्वसन क्रिया अनियमित हो जाती है। इससे आंतों पर असर होता है। अधिक तीव्र शोर से आँखों की रोशनी मन्द पड़ जाती है। रात में देखने में कठिनाई होने लगती है। रंगों का अन्तर का पाना कठिन हो जाता है। दूरी का तथा धरातल के ऊँचे-नीचे होने का सही अनुमान लगाना कठिन हो जाता है।
१. वही, जनवरी १९७६ से भावांश ग्रहण पृ. ६० २. वही, नवम्बर ७६ से भावांश ग्रहण पृ. ५६
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