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७३४ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६)
उत्तर में मेघकुमार ने शरीर की अशुचिता, अनित्यता का निरूपण करते हुए कहा-यह शरीर अशुचिमय है। उसमें वात, पित्त और कफ शुक्र-शोणित प्रधान है। वह मल-मूत्र और पीव से परिपूर्ण है । वह सड़ने, गलने और विध्वंस होने वाला है। वह नष्ट होने वाला है। इस अनित्य अशुचिमय अशाश्वत शरीर से क्षणिक दुख बीज रूप सुख की आशा करना निरर्थक है ।" शरीर की वास्तविकता का परिज्ञान हो जाने पर उसमें आसक्ति नहीं होती । शरीर की चंचलता दूर हो जाने से वह संवर साधना में दत्तचित्त से लग सकता है।
भगवान् महावीर के साधनामय जीवन का निरूपण आचारांग में है। वे कभी ऊर्ध्वदिशा में मुँह रखकर ध्यान करते थे। कभी मध्यलोक की ओर दृष्टि कर ध्यान करते थे और कभी अधोलोक को लक्ष्य में रखकर ध्यान करते थे । इस प्रकार कायसंवर की साधना उन्होंने की।
उन्होंने शरीर को भी तीन भागों में विभक्त किया था। गर्दन से ऊपर का हिस्सा ऊर्ध्वलोक और नाभि तक मध्यलोक और नाभि के नीचे का हिस्सा अधोलोक है।
नाभि के नीचे काम केन्द्र है। यदि नीचे की ओर चिन्तन धारा प्रवाहित होती है तो चेतना का अघोsवतरण हो जाएगा और ऊपर की ओर प्रवाहित होने पर चेतना का ऊर्ध्वारोहण होगा। कायसंवर की साधना में साधक काया के द्वारों से आने वाले कर्मों के आंव को निहारता है और उसका निरोध करता है। जैसे नौका में छिद्र हो जाने से उसमें जल प्रविष्ट हो जाता है और वह नौका डूब जाती है। कुशल नाविक उन छिद्रों को बन्द कर देता है, वैसे ही काय संवर की साधना करने वाला साधक उन आनव द्वारों को रोक देता है। एतदर्थ ही आचारांग में कहा गया है- पाप कर्मों के बाह्य (परिग्रह आदि ) तथा अन्तरंग (राग-द्वेष, मोह आदि) स्रोतों को बन्द करके इस संसार में मरणशील प्राणियों के बीच तुम निष्कर्मदर्शी (कर्ममुक्त अमृतदर्शी) बन जाओ।
संवर साधना से ममता आदि का व्युत्सर्ग
इस प्रकार कायानुप्रेक्षण द्वारा संवर साधना करने पर शरीर के प्रति ममता, आसक्ति प्रभृति का व्युत्सर्ग हो जाता है। जब तक शरीर के प्रति आसक्ति मूर्च्छा बनी रहेगी तब तक चंचलता मिट नहीं सकती और स्थिरता आ नहीं सकती। पावापुरी के अन्तिम प्रवचन में भ. महावीर ने शरीर को नौका कहा है और जीव को नाविक।" नौका
१. ज्ञाताधर्मकयांग अ. १, सू. १२४
२. अविझाति से महावीरे आसणत्ये अकुक्कुए झाणं ।
उड् अहे तिरियं च पेहमाणं समाहिय पडिण्णे |
३. आचारांग १/४/४/१४५
४.
शरीरमाहु नावित्ति, जीवो वुच्चइ नाविओ।
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- आचारांग १/९/४.
-उत्तराध्ययन २३/७३
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