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७३८ कर्म - विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६)
यही कारण है कि भ. महावीर ने स्थूल शरीर की प्रवृत्ति पर नियन्त्रण करने के पक्ष में बल दिया है। यदि स्थूल शरीर की प्रवृत्तियों का निरोध हो जाएगा तो सूक्ष्म शरीर भी नहीं रहेगा। स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीर ये दोनों एक दूसरे के साथ जुड़े हुए हैं। आत्मदर्शन के इच्छुक साधकों को राग-द्वेष और मोह-ममत्व आदि से दूर रहने का संदेश दिया है। कायसंवर की साधना के बिना आत्मदर्शन नहीं हो सकता। जब आत्मदर्शन होगा तो व्यक्ति का शरीर, मन और वाणी तीनों ही शान्त हो जायेंगे। क्योंकि आत्मा इन तीनों से अतीत है, अक्रिय है । अतः आत्मदर्शन भी शरीरहित और अक्रिय बनकर ही किया जा सकता है।
स्थूल शरीर की रक्षा : क्यों और किस प्रकार ?
कायसंवर के लिए भगवान ने कहा- स्थूल शरीर मन वाणी प्रभृति साधनों का धर्मपालन के लिए और पूर्वकृत कर्मों का क्षय करने के लिए, नवीन आते हुए कर्मों का निरोध करने हेतु रक्षा करे। शरीर की साल सम्भाल रखे। साधनों से साध्य प्राप्ति का उद्देश्य विस्मृत होकर उसका दुरुपयोग न करे। शरीरादि उपकरण जो आत्मा को मिले. हैं, उससे शुभ या शुद्ध कर्म करे किन्तु दुरुपयोग न करे । शारीरिक शक्तियों को भी छिपाने का उपक्रम न करे। यदि आत्मा प्रबुद्ध हो जाए, उसे यह भान हो जाए कि मेरा शरीर सेवक है, मैं स्वामी हूँ, शरीर आदि से मुझे मोक्ष साध्य को प्राप्त करना है, शरीर साध्य है इसलिए इसकी सुरक्षा करना आवश्यक है। साधक प्रतिपल प्रतिक्षण यह चिन्तन करता है - आत्मा और है और यह शरीर और है, शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श आदि कामभोग जड़ हैं और मैं शुद्ध आत्मा हूँ।
शरीर सभी शक्तियों का अधिष्ठान : पॉवर हाउस उत्पादक यन्त्र
जितनी भी संवर और निर्जरात्मक साधना है उसके लिए शरीर है। वह शरीर के बिना सम्भव नहीं । शरीर ही हमारी शक्तियों का आयतन है, अधिष्ठान है, पॉवर हाउस है। आत्मा की सभी शक्तियों की अभिव्यक्ति शरीर के द्वारा ही होती है। शरीर हमारी शक्तियों का उत्पादक यन्त्र जेनरेटर है। वही उर्जा शक्ति को समुत्पन्न करता है और विभिन्न अवयवों में और इन्द्रियों में वह उर्जा प्रवाहित होती है। आचार्य संघदासगणि ने बृहत्कल्प भाष्य' में लिखा है- शरीर का बल ही वीर्य है और उसी के अनुसार आत्मा के शुभाशुभ भावों का तीव्र या मन्द परिणमन होता है। गीवार्णगिरा के एक यशस्वी कवि ने लिखा है
'बलवति शरीरे बलवान् आत्मा निवसति'
१. देहबलं खलु वीरिये बलसरिसो चेव होति परिणामं ।
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- बृहत्कल्पभाष्य ३९४८
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