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७४४ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६)
हुए छोड़ना है, अपितु इसे समाधिपूर्वक रखना है। तो उन्होंने थोड़ा-सा उसे सहारा भी दिया, ताकि वह टूटे नहीं, किन्तु चंचलता और प्रवृत्ति के प्रेरक सूक्ष्म शरीर (कर्मशरीर) से उसका सम्बन्ध टूट जाए।
___ भगवान महावीर को कायसंवर की साधना द्वारा सूक्ष्म (कार्मण) शरीर को तोड़ना था। महावीर का तप शरीर को भूखा रखकर समाप्त कर देने के लिए नहीं था। काय-निरपेक्ष कायोत्सर्ग भी कायसंवर की साधना के लिए
वे जब कायोत्सर्ग करते थे, तो उस दौरान काया का बिलकुल विचार नहीं करते थे; क्योंकि कायोत्सर्ग द्वारा कायसंवर करने में कोई भी साधक न तो खाता-पीता है, न खाने-पीने का विचार करता है, न ही चलने, बोलने, लेटने-सोने आदि की बात सोचता
कायसंवर करने की दृष्टि से उन्होंने एकमात्र आत्मा का ही चिन्तन, ध्यान और दर्शन किया था। इसी आत्मदर्शन की पद्धति से उन्होंने स्थूल काया के प्रति मोह, ममत्व, राग-द्वेष, आदि का जो सम्बन्ध सूत्र था, उसे तोड़ दिया। शरीर शान्त, स्थिर और प्रवृत्ति रहित हो गया, उसके साथ ही उनके वचन और मन भी शान्त और स्थिर हो गए।
उन्होंने देखा कि आत्मा शरीर, मन, वाणी आदि से अतीत है, पृथक् है। विशुद्ध आत्मा-परमात्मा के दर्शन करने हों तो शरीरादि से ऊपर उठकर ही शान्त, निश्चल
और स्थिर होकर ही कर सकते हैं। अक्रिय आत्मा के दर्शन अक्रिय होकर ही किये जा सकते हैं। तभी कायसंवर की यथार्थ साधना होगी। कायसंवर की साधना के दौरान काया की विस्मृति : क्यों और कैसे ?
वस्तुतः कायसंवर की साधना के दौरान शरीर के कष्ट, भूख, प्यास, निद्रा या विश्राम का विचार या चिन्तन बिलकुल नहीं किया जाता। यही कारण है कि भगवान् महावीर छह महीने की तपश्चर्या के दौरान भी आत्मसमाधि, आत्मतृप्ति, आत्मरमणता, आत्मसन्तुष्टि एवं आत्मानन्द की मस्ती में लीन रहे, उन्हें शरीर की आवश्यकताओं या अपेक्षाओं का विचार ही नहीं आया।
भगवान् ऋषभदेव के युग का बाहुबलिमुनि का ज्वलन्त उदाहरण इस विषय में १. देखिये आचारांग (१/९/४) में भ. महावीर द्वारा कायसंवर साधना के परिप्रेक्ष्य में की गई साधना
के पाठ/यथा-"णो से, सातिज्जति तेगिच्छं। संसोहणं च वमणं च गायब्भंगणं सिणाणं च। संबाहणं ण से कप्पे, दंतपक्खालणं परिण्णाए॥" "रायोवरायं अपडिण्णे, अन्नगिलायमेगया भुंजे॥ छटेणं एगया भुंजे, अदुवा अट्टमेण दसमेणं। दुवालसमेण एगया भुंजे, पेहमाणे समाहिं अपडिण्णे॥"
-आचारांग श्रु. १, अ. ९, उ. ४, गा. ८३६, ८३७, ८४१, ८४२ २. 'महावीर की साधना का रहस्य' से यत्किंचित् भावांश ग्रहण पृ. ५३
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