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काय-संवर का स्वरूप और मार्ग ७४५
प्रसिद्ध है कि बारह वर्ष तक वे कायोत्सर्ग में शरीर को निश्चेष्ट बनाकर खड़े रहे। उन्हें भूख-प्यास, निद्रा आदि के कष्ट का जरा भी अनुभव नहीं हुआ। कष्ट शरीर को होता है, आत्मा को नहीं ___कई तार्किक एवं बुद्धिवादी लोग कह देते हैं कि ऐसा कैसे हो सकता है कि इतनी दीर्घ तपस्या, कायक्लेश या परीषहों-उपसर्गों के दौरान भी उन्होंने शरीर का बिलकुल विचार न किया हो ?
___इसके प्रमाण के लिए हम सिंगापुर के एक भारतीय योगी का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं, जिसका उल्लेख “ए वण्डर बुक ऑफ स्ट्रेज फेक्ट्स" में भी है। वैसे तो शरीर में एक नन्ही-सी सुई चुभ जाती है तो बड़ा कष्ट होता है, किन्तु सिंगापुर के इस भारतीय योगी ने अपने शरीर में ५0 भाले आर-पार घुसेड़ लिये और इस अवस्था में भी वह सबसे हंस-हंसकर बातचीत करता रहा।
लोगों ने उससे कहा-“यदि आपको कष्ट नहीं हो रहा हो तो थोड़ा चल कर दिखाइए।" इस पर उक्त योगी ने तीन मील चलकर भी दिखा दिया। . कष्ट की अनुभूति न होने का रहस्य पूछने पर उक्त योगी ने बताया कि कष्ट दरअसल शरीर को होता है, आत्मा को नहीं। यदि मानव अपने आपको आत्मा में स्थिर कर ले तो जिन्हें सामान्य लोग यातनाएँ कहते हैं, वह कष्ट भी साधारण खेल जैसे लगने लगते हैं। तितिक्षा के दृढ़ अभ्यास से शरीर को कष्टों की अनुभूति से बचाया जा सकता है . . . “इसका एक उदाहरण विन्ध्याचल के योगी गणेशगिरि ने प्रस्तुत किया। उन्होंने एक बार अपने होठों के आगे ठुड्डी वाले समतल स्थान में थोड़ी-सी गीली मिट्टी रखकर उसमें सरसों बो दिये। जब तक सरसों उगकर बड़े नहीं हो गए, और उनकी जड़ों ने वहाँ की खाल चीरकर अपना स्थान मजबूत नहीं कर लिया, तब तक वे धूप में (अपने आत्मध्यान में लीन रहकर) चित्त लेटे रहे।" ।
बंगाल में सन् १९०२ में 'अगस्तिया' नामक एक हठयोगी ने ऐसी प्रतिज्ञा की थी कि “वह दस वर्ष तक अपना बांया हाथ ऊपर उठाये ही रखेगा, नीचे नहीं गिरायेगा।" अपनी प्रतिज्ञानुसार वह लगातार १० वर्ष तक बिना हिलाये अपना हाथ ऊंचा ही किये
१. देखें "भगवान् ऋषभदेव : एक अनुशीलन" (उपाचार्य देवेन्द्र मुनि) में बाहुबलि मुनि का प्रकरण।
तुलना करें“योऽन्तःसुखोऽन्तरारामस्तथाऽन्तोतिरेव यः। स योगी ब्रह्म-निर्वाणं, ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति॥"
-भगवद्गीता ५/२४ २. अखण्ड ज्योति, नवम्बर १९७३ में प्रकाशित लेख से पृ. ५५
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