________________
७४८ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आम्रव और संवर (६) ने इसके लिए विवेक प्रतिमा बताई है। यह विवेक होने पर ही व्युत्सर्ग होगा। शरीर जड़ (चेतन) है और आत्मा चेतन है, ऐसा स्पष्ट विवेक हो जाने पर व्युत्सर्ग बहुत ही आसान हो जाएगा।
यह ठीक है कि भगवान् ने कायसंवर को सर्वप्रथम मुख्यता दी परन्तु संवर के साथ निर्जरा सहज में ही होती जाती थी। इसीलिए तपस्या को संवर भी कहा है, निर्जरा भी। तप से कायसंवर भी होता है, कर्म का आंशिक क्षय (निर्जरा) भी। अतः कायसंवर के लिए सर्वप्रथम पूर्वोक्त विवेक व्युत्सर्ग (कायोत्सर्ग) तथा दृष्टि सम्यक् होना अनिवार्य है। इनके बिना कायसंवर केवल कायचेष्टा निरोध होगा, उससे वाणी और मन की प्रवृत्ति का निरोध नहीं होगा।
कायसंवर का ज्यों-ज्यों अभ्यास दृढ़ होता जाएमा, त्यों-त्यों सम्यक्त्वसंवर सहित, व्रतसंवर, अप्रमादसंवर, योगसंवर आदि का भी विकास होता जाएगा। केवल . व्रत ले लेने मात्र से व्रतसंवर नहीं हो जाएगा। हिंसा न करने का व्रत अंगीकार कर लिया. लेकिन कायसंवर नहीं होगा तो हिंसा के लिए हाथ-पैर आदि प्रवृत्त होते रहेंगे। कायसंवर हुए बिना काया के प्रति ममत्व कैसे छूट जाएगा ? अतः सर्वप्रथम काय-संवर को ही कर्मविज्ञान मर्मज्ञों ने मुख्यता दी है।
१. महावीर की साधना का रहस्य से भावांश ग्रहण पृ. ५५
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org