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वचन-संवर की महावीथी
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और न स्वयं (शब्दवली संयोजक) को प्रसन्नता और संतुष्टि होती है। गलत एवं दग्धाक्षर का प्रयोग आदि में या अन्त में हो जाने से उस शब्दावली का अनिष्ट परिणाम भी आता
शब्दशक्ति का चमत्कार :अक्षरयोजक की कुशलता पर निर्भर
मंत्र क्या है ? अमुक वर्गों का सुव्यवस्थित संयोजन ही मंत्र है। यह संयोजक की कुशलता और अनुभूति है कि मंत्र की शब्दावली के संयोजन में उसने प्राण भर दिये हैं तो निश्चित ही उस मंत्र जप से उद्देश्य पूर्ण होगा। अन्यथा, जो व्यक्ति अक्षरों का संयोजन करने में समर्थ या निपुण नहीं है तो मंत्र प्राण शक्ति भरने के बदले प्राण-हरण भी कर लेता है।
. वैसे तो भारतीय संस्कृति के एक उन्नायक ने कहा है-'कोई भी अक्षर ऐसा नहीं है, जो मंत्र न हो, प्रत्येक अक्षर में मंत्र की शक्ति निहित है। कोई भी मूल (जड़ी) ऐसी नहीं है, जो औषध न बन सके। कोई भी पुरुष ऐसा नहीं है, जो योग्य न हो। वास्तव में इनका संयोजक ही दुर्लभ है।
योगिराज आनन्दघन जी ने रुष्ट हुए राजा की रानी को इतना-सा लिखकर दिया था कि “राजा रानी से रुष्ट हो तो आनन्दघन को क्या, और राजा रानी से तुष्ट हो तो आनन्दघन को क्या?" रानी मंत्र समझकर श्रद्धाभाव से ले गई और उसका कार्य सफल हो गया। राजा रानी से प्रसन्न हो गया। किन्तु वह रहस्य को जानने के लिए आनन्दघनजी के पास आया। वह कागज खोला तो उसमें उपर्युक्त दो वाक्य लिखे मिले। परन्तु यह मंत्रसंयोजक की कुशल प्रज्ञा और चारित्र का चमत्कार ही था।" वों के शुभाशुभत्व के आधार पर प्रश्नों के उत्तर __ज्योतिष की एक पद्धति ऐसी है, जो वर्णमाला के आधार पर विकसित हुई है। इसमें ज्योतिर्विद् प्रश्नकर्ता से कहता है-अपना प्रश्न लिख कर दो। प्रश्नकर्ता ने किस वर्ण से प्रश्न प्रारम्भ क्रिया है और किस वर्ण से प्रश्न पूरा हुआ है ? अर्थात् आदि, मध्य
और अन्त के वर्षों में शुभ वर्णों की बहुलता है या अशुभ वर्णों की; इसके आधार पर उत्तरदाता सभी प्रश्नों का उत्तर देता है। जपयोग के आध्यात्मिक प्रभाव
जपयोग में शब्दशक्ति के इसी आध्यात्मिक प्रभाव को छान कर काम में लाया जाता है। जिस प्रकार नींबू का रस निचोड़कर उसका छिलका एक ओर रख दिया जाता १. महावीर की साधना का रहस्य से भावांश ग्रहण पृ. १०८ २. (क) वही, पृ. १०९ - (ख) “अमंत्रमक्षरं नास्ति, नास्तिमूलमनौषधम्। अयोग्यः पुरुषो नास्ति, योजकस्तत्रदुर्लभः।।" ३. महावीर की साधना का रहस्य से भावांश ग्रहण पृ. १०९
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