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७४0 कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) शरीर : तितिक्षा, परीषह-सहन कायोत्सर्ग आदि : कायसंवरोपयोगी साधना के लिए उपयोगी
इसके अतिरिक्त विचारशील लोग शरीर को तितिक्षा, परीषह, उपसर्ग आदि का समभावपूर्वक सहकर कायोत्सर्ग अथवा काय विवेक को कायसंवर की सुदृढ़ साधना के लिए अत्यन्त उपयोगी मानते हैं। यों देखा जाए तो शरीर अगणित सामों का पंज है। उसमें संवरसाधना में प्रगति और सुदृढ़ता की सभी सम्भावनाएँ विद्यमान हैं। यदि. उन शक्ति स्रोतों को समझ लिया जाए और प्रयत्नपूर्वक संवर-साधना में उसे नियोजित किया जाए तो एक दिन आध्यात्मिक विकास के चरम शिखर पर साधक पहुँच सकता'
यह एक रहस्यमय तथ्य है कि शरीर में जहाँ संवरसाधना में प्रगति एवं सदृढ़ता की अगणित सम्भावनाएँ विद्यमान हैं, वहाँ इसमें अवरोधों, उपसगों, प्रतिकूलताओं एवं परीषहों को सहन करने की असीम क्षमता भी मौजूद है। यदि साधक कायसंवर साधना के लिए कटिबद्ध हो जाए तो साधारण आघात, अवरोध, परीषह या उपसर्ग उसे कथमपि स्वीकृत धर्मपथ से विचलित नहीं कर सकते। इसीलिए संवरसाधकों को भगवान् महावीर आदि ज्ञानीपुरुषों ने कुछ विशिष्ट निर्देश दिये हैं- .
"ग्रीष्म ऋतु में आतापना लो, सुकुमारता का त्याग कर दो, काम-भोगों की वासना-कामना से ऊपर उठ जाओ, क्योंकि कामभोग जीवन के लिए दुःखदायक हैं। प्रतिकूल वस्तु या व्यक्ति के प्रति द्वेष का उच्छेद कर दो और अनुकूल (मनोज्ञ-अभीष्ट के प्रति राग (मोह या आसक्ति) को भी मन से हटा दो, ऐसा करने पर ही तुम इस संसार में सुखी हो सकोगे।"
वास्तव में, हिम्मत के धनी एवं धैर्यवान् साधक ही मानसिक सन्तुलन बनाये रख सकते हैं। वे ही समागत संकटों और कष्टों को हँसते-हँसते सहन करके उन्हें पार कर लेते हैं। इसीलिए 'दशवकालिक सूत्र' में उन संवरसाधकों के लिए कहा गया है-“जो दुष्कर कार्यों को (प्रसन्नतापूर्वक) करके तथा दुःसह (परीषह- उपसर्गादि के) संकटों व कष्टों को (समभावपूर्वक) सह लेते हैं; वे कतिपय साधक (कुछ कर्म अवशिष्ट रहने के कारण) देवलाकों में जाते हैं और कई कर्मरज से सर्वथा रहित होकर सिद्ध-बुद्ध मुक्त हो जाते हैं।
१. आयावयाही चय सोगमल्लं, कामे कमाही कमियं खु दुक्खं ।
छिंदाहि दोसं विणएज्ज रागं, एवं सुही होहिसि संपराए ॥ -दशवैकालिक अ. २ गा. ५ २. दुक्कराई करित्ताणं, दुस्सहाई सहित्तु य।
केइऽत्य देवलोगएसु केइ सिझति नीरया। -दशवैकालिक अ. ३ गा. १४
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