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काय -संवर का स्वरूप और मार्ग ७३९
बलवान् शरीर में ही बलवान् आत्मा का निवास होता है।
आत्मा के ज्ञान, दर्शन, आनन्द और शक्ति- ये चार निज गुण हैं, स्वभाव हैं। इन गुणों की अभिव्यक्ति शरीर के माध्यम से ही होती है। कर्मविज्ञानमर्मज्ञों ने कहा है कि उत्तम संहनन यानि वज्रऋषभनाराच संहनन वाला व्यक्ति ही ध्यान साधना का अधिकारी है। शरीर में हड्डी ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। वही पराक्रम का मूल है। जिसकी हड्डियाँ सुदृढ़ होती हैं वह व्यक्ति आत्म सन्तुलन रखने में समर्थ हो सकता है। जिसकी हड्डियाँ सुदृढ़ हैं, वह लम्बे समय तक साधना में स्थिर रह सकता है।
हमारे शरीर में सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान है रीढ़ की हड्डी का, जिसे पृष्ठरज्जू भी कहते हैं। उसी में आनन्द केन्द्र से सम्बद्ध अनाहत चक्र, हृदय चक्र हैं, जिससे सारा आनन्द प्रकट होता है। यह शरीर महान् शक्तियों का पुञ्ज है। इसमें निहित शक्तियों का पूरा उपयोग और प्रयोग किया जाये तो ज्ञानादि आत्म गुणों को हम प्रकट कर सकते हैं। हमारी बहुत सी शक्तियाँ सुषुप्त हैं। शरीर का यथार्थ अनुप्रेक्षण करने से उन शक्तियों को जागृत कर सकते हैं। काया के द्वारा ही तप, जप, मन:संयम, परीषहजय, कषायजय और संवर की साधना की जा सकती है। बुराइयों से बच सकते हैं और अच्छाइयाँ प्रगट कर सकते हैं। तपस्या, इन्द्रिय-निग्रह, मनःसंयम, परीषहजय, कषायविजय आदि संवरों. की साधना भी काया से हो सकती है, बशर्ते कि कायिक शक्ति का सही ढंग से उपयोग किया जाए।
काय संवर साधक महर्षियों की अर्हताएँ
कायसंवर करने वाले महर्षियों या त्यागी साधकों की अर्हताओं का प्रतिपादन करते हुए दशवैकालिक सूत्र में कहा गया है- “जो ऋजुदर्शी (सरलात्मा) धीर निर्ग्रन्थ हैं, वे पाँच विध आम्रवों के परिज्ञाता (ज्ञ परिज्ञा से जानकर प्रत्याख्यान- परिज्ञा से उनके त्यागी) होते हैं, तीन गुप्तियों से युक्त तथा षट्कायिक जीवों के प्रति संयत एवं पंचेन्द्रिय निग्रह करने में कुशल होते हैं। ऐसे सुसमाधिवान् (सुसमाहित) संयमी मुनि ग्रीष्म ऋतुओं में आतापना लेते हैं, तथा हेमन्त आदि शरद ऋतुओं में अपावृत (प्रावरणरहित) तथा वर्षा के दिनों में प्रतिसंलीन हो जाते हैं। वे ही परीषह शत्रु का दमन करने वाले, • मोहमहामल्ल को कम्पित कर देने वाले जितेन्द्रिय महर्षि समस्त दुःखों को नष्ट करने के लिए अहर्निश पराक्रम करते रहते हैं।'
१. पंचासवपरिण्णाया तिगुत्ता छसु संजमा । पंचनिग्गहणा धीरा निग्गंथा उज्जुदसिणो ॥ आयावयति गिम्हेसु हेमंतेसु अवाउडा । वासासु पडिसंलीणा संजया सुसमाहिया ॥ परीसहरिऊदंता, धुयमोहा जिइंदिया | सव्व दुक्खपहीणट्ठा पक्कमंति महेसिणो ॥
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- दशवैकालिक अ. ३ गा. ११, १२, १३
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