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काय-संवर का स्वरूप और मार्ग ७३३
काय-संवर कायिक प्रवृत्ति निरोध : क्यों और कैसे ?
श्रमण भगवान् महावीर ने कर्मों के संवर की प्रेरणा दी। संवर में भी सर्वप्रथम संवर काया का है। यदि काया का संवर नहीं होगा तो मन और वचन का संवर भी नहीं हो सकेगा। मन और वचन-इन दोनों का संवर भी कायसंवर के साथ ही संयुक्त है। ये दोनों काया के द्वारा ही संचालित हैं। स्वतः संचालित नहीं हो सकते।
'सैद्धान्तिक दृष्टि से चिन्तन करें तो स्थूल शरीर ही मनोवर्गणा के पुद्गल को तथा भाषा वर्गणा के पुद्गल को ग्रहण करता है। मन के पुद्गलों को मन स्वयं ग्रहण नहीं करता और न वाणी के पुद्गलों को वाणी ग्रहण कर पाती है। ये सारे पुद्गल काययोग ही ग्रहण करता है। यों देखा जाय तो समस्त प्रवृत्तियों का मूल केन्द्र काय योग है। कायासंवर होने के पश्चात् ही वचन संवर और मन-संवर होता है। शास्त्र में जो तीन योगों की चर्चा है वह सापेक्ष है। जब काया में चंचलता होगी तो श्वांस, वाणी और मन शान्त कैसे रह सकेंगे ? उनमें भी चंचलता पैदा होगी।
एक रूपक है। एक संन्यासी रेगिस्तान की यात्रा कर रहा था। उसे बड़ी जोर से भूख और प्यास सताने लगी। उसने इधर-उधर देखा। एक लता पर सुन्दर फल लगा हुआ है। उसने फल को तोड़ा। चखने पर उसका मुँह कड़वाहट से भर गया। उसके पश्चात् उसने पत्ते और फूल तोड़कर चखे वे भी उसे कड़वे लगे। अन्त में उसने जड़ उखाड़ कर चखी। वह भी उसे कड़वी लगी। उसके मन में यह दृढ़ निश्चय हो गया कि जिसकी जड़ कड़वी है उसके पत्ते, फल और फूल मीठे नहीं हो सकते।' संवर साधना का मूल काया है। यदि काया में कड़वाहट-चंचलता, कम्पन, स्पंदन आदि की कटुता है तो श्वास, मन और वाणी में भी उक्त कड़वाहट होगी ही।
बौद्ध धर्म ने काया की चंचलता को मिटाने के लिए और उसमें स्थैर्य लाने के लिए काय विपश्यना की पद्धति प्रस्तुत की। जैसे डॉक्टर प्रत्येक अंग का विश्लेषण करके समझाता है वैसे ही बौद्धाचार्यों ने कहा कि प्रस्तुत शरीर में यह मांस है, यह रक्त है, यह मज्जा है, यह मेद है, यह हड्डी है। यह शरीर इनसे भरा हुआ है। फिर इस काया के प्रति इतनी माया ममता क्यों ? आसक्ति क्यों ? जब साधक को काया की वास्तविक स्थिति का परिज्ञान हो जाता है तब उसका मन शरीर को लेकर राग-द्वेष में नहीं जाता। वह चिन्ता, शोक, तनाव, रोग आदि किसी भी कारण को नहीं अपनाता। अशुचित्वानुप्रेक्षा से शरीर के प्रति विरक्ति
ज्ञाता धर्मकथा में वर्णन है कि मेघकुमार ने अपने माता-पिता के समक्ष जब दीक्षा का संकल्प प्रस्तुत किया तो उन्होंने भुक्तभोगी बनकर दीक्षा लेने की प्रेरणा प्रदान की। तब १. जवाहर किरणावली (आचार्य जवाहरलाल जी म. भाग ९)
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