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संवर के लिए भाव-विवेकरूपी शस्त्र
विवेक भी कई प्रकार का होता है। गेहूँ आदि धान्यों से कंकरों को अलग कर देना धान्य-विवेक है। इसी प्रकार धन, धाम, देह, गेह, परिवार, मन, इन्द्रियाँ आदि से आत्मा को पृथक करने का चिन्तन परिग्रहादि विवेक है। कर्म से आत्मा के पृथक्त्व की दृढ़ भावना करना कर्म-विवेक है। ममत्व, राग, द्वेष, कषाय आदि आनव-करणों से या विभावों से आत्मा को पृथक् समझना भाव-विवेक है। संवर एक प्रकार का भावविवेक है। भगवान् महावीर ने विवेक में धर्म कहा है ।""
परिज्ञा के सूत्र
परिज्ञा के सम्बन्ध में आवश्यक सूत्र के अन्तर्गत श्रमण सूत्र के कुछ सूत्र ये हैंअसंजमं परियाणामि, संजमं उवसंपवज्जामि ।
अबंभं परियाणामि, बंभ उवसंपवज्जामि । अकप्पं परियाणामि, कप्पं उवसंपवज्जामि । अन्नाणं परियाणामि, नाणं उवसंपवज्जामि । अकिरियं परियाणामि, किरियं उवसंपवज्जामि । मिच्छत्तं परियाणामि, सम्मत्तं उवसंपवज्जामि ।
अबोहिं परियाणामि, बोहिं उवसंपवज्जामि । उम्मग्गं परियाणामि, मग्गं उवसंपवज्जामि ।
आनव की बाढ़ और संवर की बांध ७१७
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अर्थात् -"मैं असंयम को भलीभांति जानकर उसका परित्याग करता हूँ और संयम का स्वीकार करता हूँ। अब्रह्मचर्य को सम्यक् प्रकार से जानकर उसका परित्याग करता हूँ और ब्रह्मचर्य को अंगीकार करता हूँ। अकल्पनीय पदार्थ को सम्यक् प्रकार से जानकर उसका परित्याग करता हूँ और कल्पनीय पदार्थ का स्वीकार करता हूँ। अज्ञान को भलीभाँति जानकर कर उसका त्याग करता हूँ और सम्यग्ज्ञान का स्वीकार करता हूँ। अक्रिया (साम्परायिक कुक्रिया) को जानकर उसका परित्याग करता हूँ, और सम्यक् क्रिया (ईर्यापथिक) को स्वीकार करता हूँ। मैं मिथ्यात्व को भलीभाँति जानकर उसका परित्याग करता हूँ और सम्यक्त्व का स्वीकार करता हूँ। मैं अबोधि को सम्यक् प्रकार से जानकर उसका परित्याग करता हूँ और बोधि को अंगीकार करता हूँ। मैं उन्मार्ग (संसार मार्ग) को भलीभाँति जानकर उसका परित्याग करता हूँ और सन्मार्ग (मोक्ष - मार्ग) को अंगीकार करता हूँ । २
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(क) देखें - आचारांग (जैन आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर ) श्रु. १, अ. ५, उ. १ के सूत्र १६० की व्याख्या, पृ. १६५
'एस महंविवेगे वियाहिते । - वही, अ. ८ उ. १ सू. २०२ पृ. २४५
(ख) २. श्रमणसूत्र पंचम ।
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