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७२४ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६)
इनमें मिथ्यात्व को हटा कर सम्यक्त्व पोषक क्रिया की स्थापना करे, मन वचन काया के योगों का निरोध करके पांच समिति तीन गुप्ति की स्थापना करे, कषाय के निरोध के लिए दशविध श्रमणधर्म की स्थापना करे। इन्द्रिय-विषयों के प्रति रागद्वेषरूप आनव को हटाने के लिए बारह अनुप्रेक्षाओं को स्थापित करे । अव्रत के स्थान पर पांच प्रकार के चारित्र की स्थापना करे, व्रत एवं संयम का पालन करे। पच्चीस क्रियाओं के निराकरण के लिए बाईस प्रकार के परीषहों पर विजय तथा द्वादश अनुप्रेक्षाओं से मन वचन काया को भावित करे।
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संवर के इन ५७ भेदों का आचरण करने से कर्मों के आगमनों (आम्रवों) की बाढ़ रुक जाएगी और संवर की सुदृढ़ बांध निर्मित हो सकेगी। धीरे-धीरे अभ्यास में वृद्धि होने पर आत्मा कर्मों से सर्वथा मुक्त, अयोगी और सिद्ध-बुद्ध हो सकती है।'
१. (क) बाईस प्रकार के परीषह विजय के लिए देखें- उत्तराध्ययन सूत्र अ. २, तथा तत्त्वार्थसूत्र अ. ९/सू. ९ एवं जैन आचार ग्रन्थ
(ख) दशविध श्रमण धर्म - अत्तमः क्षमा मार्दवार्जव - शौच सत्य-संयम-तपस्त्यगाकिञ्चन्य ब्रह्मचर्याणि
धर्माः।
- तत्त्वार्थ-९/६
(ग) अनित्याशरण-संसारैकत्वाऽन्यत्वाशुचित्वाम्नव-संवर- निर्जरा-लोक-बोधिदुर्लभ धर्मस्वाख्यात
-वही; ९/७
तत्त्वानुचिन्तनमनुप्रेक्षाः॥
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