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काय-संवर का स्वरूप और मार्ग ७२९
उत्तम साधन है। शुभ और शुद्ध (अबन्धक) कर्म करने के लिए भी शरीर श्रेष्ठ माध्यम
इसलिए अध्यात्म मनीषियों ने कहा-“इस शरीर को न तो केवल कष्ट देकर या अंगों को तोड़ना-फोड़ना या अत्यन्त कृश करना चाहिए और न ही इस पर आसक्ति करके इसका अत्यन्त लाड़-प्यार करना चाहिए और न इसे अत्यन्त सुकुमाल एवं सुखसुविधा भोगी तथा नाजुक बनाना चाहिए।'
शरीर जब तक है तब तक अनिवार्य प्रवृत्ति तो करनी ही पड़ती है, उसके बिना कोई चारा नहीं, परन्तु शरीर से खाने, पीने, उठने, बैठने, सोने-जागने, मल-मूत्रविसर्जन करने, चलने-फिरने (साधु के लिए भिक्षाचरी, विहार, प्रवचन, प्रतिलेखन, वार्तालाप, आदि चर्या करने तथा गृहस्थ के लिए आजीविका) आदि प्रवृत्तियाँ काया से करनी पड़ती हैं। परन्तु उसमें भी यतनाचार, विवेक सभी जीवों के प्रति आत्मौपम्य भाव, सन्तुलन रखा जाए तो पापकर्म का बन्ध नहीं होता, और तीव्र आत्मलक्ष्यी प्रवृत्तियाँ संयमपालन के हेतु की जाएँ तो उसे उन प्रवृत्तियों से कर्मक्षय करने (निर्जरा) का लाभ भी मिल जाता है, और शुभाशुभ उभय कर्मों के निरोध (संवर) का लाभ भी अनायास ही मिल जाता है।
आवश्यक नियुक्ति में बताया गया है कि संयम रक्षा के लिए देह धारण किया जाता है। यदि संयम और जीवन रक्षा दोनों में कोई द्वन्द्व उपस्थित हो तो संयमवृद्धि के निमित्त देहरक्षण करना अभीष्ट है। ... यही कारण है कि भगवान् महावीर ने शरीर से एकान्तरूप से प्रवृत्ति करने की बात को ठीक नहीं कहा, और न ही एकान्त रूप से निवृत्ति की बात को उचित बताया। उन्होंने छद्मस्थ की भूमिका वाले साधक के लिए कहा कि यदि शरीर अशुभ यानी पापकर्म में, अनिष्ट कृत्यों में, हिंसा आदि सावध एवं गर्हित कार्यों में प्रवृत्त हो रहा हो तो उसे वहीं रोक दो, और कदाचित् प्रमादवश अहिंसादि में तथा क्षमादि दशविध धर्मों में एवं समिति-गुप्ति की साधना में प्रवृत्ति करने से कतराता हो, आलसी बनकर सुखसविधा पाना चाहता हो, या निश्चेष्ट होकर साधना में आलस्य करता हो, खा-पीकर सुख से सोना चाहता हो तो उसे ऐसी निवृत्ति से दूर रखकर सावधानी पूर्वक संयममार्ग में प्रवृत्त करो। व्यवहार चारित्र के लिए काया, प्रवृत्ति-निवृत्ति का यही सापेक्ष मार्ग उन्होंने
१. ने केवलमयं कायः कर्षणीयो मुमुक्षुभि : .................. २. (क) जयं चरे जयं चिढ़े ..........पावकम्मं न बंधइ। -दशवकालिक अ. ४ (ख) विवेगे धम्ममाहिए।
-आचारांग ११ ३. संजमहेउं देहो धारिज्जइ, सो केओ उ तदभावे। ... संजम काइ-णिमित्त देहपरिपालणा इट्ठा ॥
-आवश्यक नियुक्ति ४७
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