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. ७२२ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६)
इसी प्रकार संवर धर्म की साधना करने वाला व्यक्ति प्रतिक्षण जागरूक, सावधान और अप्रमत्त होकर रहता है। जो संवरसाधक प्रमादी होता है, वह सामायिक, प्रतिक्रमण, तपश्चर्या, व्रत, चारित्र आदि संवर कार्यों के साथ यशकीर्ति, प्रतिष्ठा, प्रशंसा, लौकिक कामना, सांसारिक सुखभोगेच्छा आदि आम्रवों को भी प्रविष्ट होने देता है। फलतः उसकी संवर साधना आम्रवमिश्रित होकर दूषित एवं अतिचारयुक्त हो जाती है। इस प्रकार संवर प्रायः दूषित होता है, साधक के प्रमाद, असावधानी और अविवेक के कारण। भगवान् महावीर ने आचारांग सूत्र में साधकों को जागरूक एवं अप्रमत्त रहने का निर्देश देते हुए कहा-"यह अप्रमाद संवर का मार्ग आर्यों (तीर्थंकरों) ने बताया है, संवरसाधना के लिए साधक उत्थित (उद्यत) होकर प्रमाद न करे।"
अप्रमाद संवर के पथ पर चलने के लिए साधक को प्रतिपल एक सजग प्रहरी की भांति सतर्क और सचेष्ट रहना पड़ता है। विशेषतया उसे स्थूल शरीर पर ही नहीं, सूक्ष्म कार्मण शरीर पर विशेष देखभाल रखनी होती है। इसकी प्रत्येक गतिविधि को बारीकी से जांच-परख कर आगे बढ़ना होता है। यदि अष्टविध प्रमाद में से कोई भी प्रमाद जरा भी भीतर घुस आया तो वह आत्मविकास की गति-प्रगति को ठप्प कर देगा।
इसलिए प्रमाद के मोर्चों पर बराबर निगरानी रखनी चाहिए। जैसे-जैसे साधक अप्रमत्त होकर स्थूल शरीर की क्रियाओं तथा उससे मन, वचन और इन्द्रियों पर होने वाले प्रभावों को देखने का अभ्यास करता जाता है, वैसे-वैसे कार्मण शरीर की गतिविधि को देखने की शक्ति भी आती जाती है। यों शरीर के सूक्ष्मदर्शन का दृढ़ अभ्यास होने पर अप्रमाद की गति में वृद्धि होती है और शरीर से प्रवाहित होने वाली चैतन्यधारा की उपलब्धि होने लगती है। यही अप्रमाद संवर साधना का राजमार्ग तीर्थंकरों ने बताया है।'
अकषायसंवर की साधना में साधक को बहुत ही जागरूक रहकर क्षमा आदि दश धर्मों का अभ्यास करना चाहिए। यदि साधक क्रोधादि कषायों पर विजय प्राप्त नहीं करता है। कोई उसका जरा-सा अपमान कर दे या उसके धर्म सम्प्रदाय के विषय में सुधार की या यथार्थ बात कहता है तो वह झल्ला उठता है, बौखला जाता है और व्यर्थ ही १. (क) देखें-आवश्यक सूत्र में सामायिक के १० मन के, १0 वचन के, १२ काया के, यो
३२ दोषों का कयन। (ख) देखें-आवश्यक सूत्र में १२ व्रतों, सल्लेखना, पौषध, सामायिक आदि के अतिचारों का
उल्लेख। (ग) दशवकालिक सूत्र अ.९ उ.४ में तपःसमाधि और आचारसमाधि के लिए निषिद्ध निर्देश। (घ) 'एस मग्गो आरिएहि पवेइए, उहिए नो पमायए।' -आचारांग श्रु. १, अ. ५, उ. २ ७) आचारांग (-आगम प्रकाशन समिति ब्यावर) श्रु. १, अ. ५, उ. २ के सू. १५२ का
विवेचन पृ. १५४
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