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पुण्य : कब और कहाँ तक उपादेय एवं हेय? ६७३ • शुद्धोपयोग की अयोग्यता वाले शुभोपयोग को छोड़कर अशुभोपयोगरूप पापपंक में निमग्न
परन्तु जो व्यक्ति अभी हीन प्रवृत्ति को अपना कर पापपंक में फंसा हुआ है, उसे उक्त पाप प्रवृत्ति से विमुख न बनाकर जो सीधे ही शुद्धोपयोग की उच्च-भूमिका पकड़ा देता है, ऐसा करके वह उसे पुण्य प्रक्रियाओं से भी विमुख बना देता है। तो समझिए कि वह उस जीव के कल्याण के प्रति शत्रुता प्रदर्शित करता है। ऐसे व्यक्ति सद्गुरु की शरण न मिलने से शुभोपयोगरूप पुण्य प्रवृत्ति को तो शुद्धोपयोग प्राप्ति के भ्रम में छोड़ बैठते हैं,
और वैसी योग्यता न होने से पाप प्रवृत्ति (अशुभोपयोग) को जोर से पकड़े रहते हैं। वे भ्रान्तिवश ऐसा सोचने लगते हैं कि उन्होंने मोक्षमार्ग को प्राप्त कर लिया है।
उन्हें समाधिशतक में उक्त आचार्य पूज्यपाद द्वारा सूचित त्याग का यह क्रम हृदयंगम करना चाहिए-“सर्वप्रथम प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान (चौर्य), कुशील सेवन एवं परिग्रहासक्तिरूप पाप के कारणों-अव्रतों को छोड़कर अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहरूप व्रतों में परिपूर्णता प्राप्त करनी चाहिए। तत्पश्चात् आत्मा के निर्विकल्प रूप में लीन होकर शुक्लध्यान के द्वारा परम समाधि को प्राप्त करते हुए उन पूर्वोक्त विकल्पात्मक व्रतों को भी छोड़कर आत्मा के परमपद (परमात्मपद) को प्राप्त
करना चाहिए।"
निष्कर्ष यह है कि वीतराग महर्षियों की देशना-पद्धति यह है कि जो व्यक्ति पापों में निमग्न हो रहा है, उसे सर्वप्रथम उन पापों से विमुख करके पुण्य के सम्मुख करो, फिर पुण्यफल से प्राप्त वैभव तथा पुण्योपार्जन की वृत्ति को भी त्यागकर आकिंचन्य भावना द्वारा उसे वीतराग-परमात्मपद प्राप्ति की ओर मोड़ो। भूमिका देखकर ही शुभोपयोग का त्याग कराया जाता है
जैनागमों में सर्वत्र इसी क्रम और विधि का उपदेश किया गया है। जैसे उत्तराध्ययन सूत्र में चित्त-सम्भूति-संवाद में सम्भूति का जीव निदान करके पूर्वकृत - पुण्यवश चक्रवर्ती पद प्राप्त कर चुका था, परन्तु चक्रवर्ती बनने के बाद वह (ब्रह्मदत्त) भोगों में इतना आसक्त हो चुका था कि चित्तमुनि के जीव (वर्तमान में वीतरागमार्गी मुनि) ने उसे शुद्धोपयोग के लिए बिलकुल अयोग्य समझकर सर्वप्रथम हिंसादि पापों से विरत करके प्राथमिक शुभोपयोग में स्थिर करने के लिए उपदेश दिया कि-"यदि तू भोगों का त्याग करने में अशक्त-असमर्थ है तो कम से कम आर्यकर्म तो कर जिससे कि धर्म
१. (क) महाबंधो भा. १ प्रस्तावना से पृ. ६४ (ख) अव्रतानि परित्यज्य व्रतेषु परिनिष्ठितः।
त्यजेत्तानपि संप्राप्य परमं पदमात्मनः॥
-समाधिशतक ८४
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