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७१0 कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६)
रहकर आत्म-भावों में जब अधिकाधिक स्थिर होता जाता है, तब मन्दतम कषाय चतुष्टय की उस बाढ़ को अकषाय संवर की बांध से रोक देता है। . ___आत्मा दसवें गुणस्थान से सीथे बारहवें गुणस्थान में जब पहुँचने को उद्यत होता है, तो क्षपक श्रेणी (मोहकर्म का सर्वथा क्षय करने की परिणाम धारा) पर आरूढ़ होकर पूर्ण प्रकाश की-वीतरागता की भूमिका प्राप्त कर लेता है। इस स्थिति में राग-द्वेषात्मक परिणामों के द्वारा जो कषायासव आ रहा था, वह भी सर्वथा समाप्त हो जाता है। आत्मा की पूर्ण स्वानुभूति जागृत हो जाती है। दूसरे शब्दों में कहें तो आसव के मिथ्यात्व आदि चारों प्रवाहों से आने वाली बाढ़ को वह पूर्णतया रोक देता है, अकषाय संवर की बांध
योग-आम्रव की बाढ़ : अयोग-संवर की बांध . .
___ अब एक मात्र योग-आस्रव शेष रहता है। परन्तु मन-वचन-काया के योगों में जो चंचलता मिथ्यात्वादि के कारण या रागद्वेषदि के कारण थी, वह समाप्त हो गई। अतः अब केवल ईर्यापथिक आम्नव रह गया है, जो जब तक आयुष्य है, यह शरीर है, तब तक केवल कषायादि रहित योग-आसव रहते हैं। वे भी नाममात्र के आसव हैं। उनसे पहले समय में कर्म का स्पर्श होता है, और दूसरे क्षण में तो वह स्वयमेव झड़ जाता है। वह कर्म अबन्धक है, अकर्म है। इस भूमिका पर आरूढ़ सयोगी केवली आम्रवों की बाढ़ को विशेषतःअवशिष्ट योगासवों की बाढ़ को पूर्णसंवर की बांध से सर्वथा रोक देता है। यहाँ आकर संवर-साधना की परिपूर्णता आ जाती है। चार घाती कर्मों का सर्वथा क्षय हो जाता है। चार अघातीकर्म शरीर और आयुष्य से सम्बद्ध होने के कारण रह जाते हैं। वे भी उसी जन्म में आयुष्य के अन्त होने के साथ ही समाप्त हो जाते हैं। वह योगों का सर्वथा निरोधक अयोगी केवली परमात्मा सर्वकर्मविमुक्त होकर अनन्तज्ञानादि चतुष्टयरूप पूर्ण परम आत्म-सम्पदा से सम्पन्न हो जाता है।
यह है-आम्रवों की बाढ़ को रोकने के लिए आत्मा के द्वारा क्यिा जाने वाला संवर की बांध का पराक्रम। पंचविध संवरों की सिद्धि : कैसे और किस प्रकार है
जीतकल्प में संवर का यही लक्षण किया गया है-"मिथ्यादर्शन, अविरति, कषाय, प्रमाद और योग का निरोध संवर है।" मिथ्यादर्शन, अविरति, कषाय, प्रमाद और योग ये पाँचों भाव-आनवों के द्वार हैं।'
१. (क) 'मिच्छादसणाविरई-कसाय-पमाय-जोग-निरोहो संवरो।"-जीतकल्पचूर्णि पृ. ५ (ख) पंच आसवदारा पण्णत्ता, तं जहा-मिच्छत्तं, अविरई, पमाया, कसाय, जोगा।
-समवायांग समवाय ५
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