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७१२ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आम्नव और संवर (६)
विरति (व्रत) संवर की सिद्धि
इसके पश्चात् सम्यग्दर्शन से युक्त आत्मा (हिंसा, असत्य, चौर्य, अब्रह्मचर्य और परिग्रह रूप) पाँच आनव द्वारों का निरोध करने का पुरुषार्थ करता है । इसी दृष्टि से दशैवकालिक चूर्णि में प्राणिवधादि पाँच आम्रवों के निरोध करने को संवर कहा गया है।'
विरति संवर की साधना करने वाला साधक पाँच सर्वविरति रूप या देश- विरति रूप संवर धर्म को अंगीकार करता है। इससे नये कर्म आने के मार्ग रुक जाते हैं। अप्रमाद संवर की सिद्धि
विरति-संवर की साधना के सन्दर्भ में साधक के व्रत, नियम, त्याग, प्रत्याख्यानं, तप, सामायिक, पौषध आदि चारित्र के पालन में कई प्रकार के प्रमाद आ घुसते हैं, वे फिर की कराई साधना को मटियामेट कर देते हैं। अतः प्रमाद से बचने और जहाँ प्रमाद का प्रवेश होता दिखता हो, उसे रोकने के लिए जागरूक साधक अप्रमाद संवर की साधना करता है, क्योंकि प्रमाद संसार- परिभ्रमण का मूल कारण है। अतः अप्रमत्त संवर की साधना से तथा अप्रमत्तभाव से प्रत्येक क्रिया या प्रवृत्ति करने से आम्रवनिरोध हो जाता है।
अकषाय-संवर की सिद्धि
अप्रमत्त-भाव से प्रवृत्ति करने से, मन-वचन काया तीनों योगों में अप्रमाद एवं जागरूकता रहने से अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानी, प्रत्याख्यानी ये तीनों प्रकार के कषाय (क्रोधादि चतुष्टय) तो नहीं रहते, किन्तु संज्वलन का सूक्ष्म कषाय रहता है, उसके फलस्वरूप सूक्ष्म प्रशस्तराग देव-गुरु-धर्म-संघ आदि के प्रति अनुराग, धर्मप्रचार का, प्रसिद्धि, प्रतिष्ठा आदि का सूक्ष्म लोभ अन्तरात्मा में जमा रहता है। दसवें गुणस्थान में आकर संज्वलन का लोभ कषाय भी उपशांत हो जाता है। साधक क्रोधादि चारों कषायों से निवृत्त हो जाता है। चारों कषायों से निवृत्त होने से अकषायसंवर सिद्ध हो जाता है। अब तो केवल योग आनव ही रह जाता है। राग और द्वेष (जो कषायों के ही प्रकार हैं) का सर्वथा क्षय हो जाने से वीतराग वह सयोगी केवलज्ञानी (सर्वज्ञ) बन जाता है।
अयोग-संवर की सिद्धि
अब तो उसके जीवन में केवल योग-आनव ही रह जाता है। योग आनव (ईर्यापथिक आस्नव) के प्रभाव से कर्म आते अवशय हैं, किन्तु दूसरे ही क्षण स्वयमेव
१. संवरो णाम पाणवहादिणं आसवाणं निरोहो ।
-दशवैकालिक चूर्णि पृ. १६२
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