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६७२ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६)
उन्हें यह ज्ञात होना चाहिए कि शुभोपयोग तभी सर्वथा हेय होता है, जब पूर्णतः शुद्धोपयोग की भूमिका प्राप्त हो जाए। शुभोपयोग की केवल निन्दा करने से या उच्चतम भूमिका प्राप्त किये बिना ही उसे छोड़ देने से वह नहीं रुकेगा, बल्कि जब भी रुकेगा, शुद्धोपयोग के द्वारा ही रुकेगा । निर्विकल्पसमाधिरूप, शुद्धोपयोग एकान्ततः अभेदरत्नत्रय की आराधना से प्राप्त होता है। केवल शुद्धोपयोग तो वीतराग मुनियों को ही प्राप्त होता है, सामान्य मुनियों को नहीं, चाहे वे कितने ही विद्वान् हों, तर्कशास्त्री हों, एवं अध्यात्मपण्डित हों।
हाँ, सुविहित मुनिवरों को शुभोपयोग के साथ-साथ शुद्धोपयोग प्राप्त हो सकता है । किन्तु परिग्रही गृहस्थ को तो उसकी प्राप्ति उसी प्रकार असम्भव है, जिस प्रकार देव पर्याय वाले जीव को मोक्ष की प्राप्ति असम्भव है। यही कारण है कि भव्यजीवों के कल्याणार्थ जैनाचार्यों तथा जैन मनीषियों ने शुभोपयोग द्वारा पुण्य संचय को प्रशस्त मार्ग बताया है।"
शुद्धोपयोग सर्वथा उपादेय है किन्तु किस क्रम से और किस भूमिका में?
यद्यपि शुद्धोपयोग सर्वश्रेष्ठ निधि है, किन्तु विषय कषायों के कारण जिसकी आत्मा अत्यन्त अशक्त है, वह निर्विकल्पसमाधिरूप अप्रमत्त दशा को सहसा नहीं प्राप्त कर सकता। उसके लिए शुभोपयोग कथंचित् उपादेय है, किन्तु अशुभोपयोग तो दुर्गति का बीज होने से सर्वथा हेय है।
अतः परम आप्त सर्वज्ञ वीतराग महर्षि विषयासक्त एवं कषायपराजित प्रमत्त जीवों की मनोदशा को भलीभाँति जानकर पुण्य के माध्यम से श्रेष्ठ इन्द्रियजनित सुखों एवं अन्य उपलब्धियों की ओर आकर्षित करते हैं फिर उन्हें व्रताचरणरूप व्यवहार धर्म की ओर मोड़ते हैं। तत्पश्चात् विषयसुखों की निःसारता का उपदेश देकर वे संवरनिर्जरारूप कर्ममोक्ष की दीक्षा की ओर उसे मोड़ते हैं और शुद्धोपयोगलीन बनाकर मुक्तिश्री का स्वामी बना देते हैं।
उनकी तत्त्वदेशना की पद्धति का उल्लेख 'समाधिशतक' में आचार्य पूज्यपाद इस प्रकार करते हैं- "असंयमी जीवन द्वारा पाप का संचय होता है। अहिंसादि व्रतों (के ग्रहण) से पुण्य की प्राप्ति होती है। पुण्य और पाप दोनों कर्मों के क्षय हो जाने पर मोक्ष प्राप्त होता है। अतः मोक्षार्थी मुनि अभेदरलत्रयरूप निर्विकल्पसमाधि का आश्रय लेकर अव्रत के तुल्य विकल्पात्मक व्रतों का भी परित्याग कर दे।
महाबंधो भा. १ प्रस्तावना (पं. सुमेरुचन्द्र जैन दिवाकर) से पृ. ६१
१.
२ . वही, पृ. ६४
३.
अपुण्यमव्रतैः पुण्यं व्रतैर्मोक्षस्तयोरफलः ।
अव्रतानीव मोक्षार्थी व्रतान्यपि ततस्त्यजेत् ॥
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-समाधिशतक ८३
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