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कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आम्रव और संवर (६)
नहीं चाहता। जबकि संवर मार्ग को अपनाने वाला उत्तमार्थ- गवेषक व्यक्ति प्रारम्भ से ही श्रेयपथ में विघ्नकारक - अहंकारादि बाधक तत्त्वों को ठुकरा देता है, इन्द्रियों के लुभावने विषयों के जाल में फँसने से स्वयं को बचा लेता है। वह पहले मिटने को तैयार होता है, कष्ट-कठिनाइयों से स्वयं जूझने को उद्यत होता है, पापकर्मों अशुभानवों को तो वह हर्गिज अपनाता नहीं, परन्तु पुण्यकर्मों-शुभानवों को भी दूर से ही आते देखकर वह लाल झंडी बता देता है, सावधान होकर आने से रोक देता है। वह अपने तन-मन-वचन को तिल-तिल कर आत्मा की सेघा में गलाने, मिटाने और खपाने को अहर्निश तत्पर रहता है । उसी का प्रतिफल उसे मिलता है - अपने सत्पुरुषार्थ से शाश्वत मुक्ति एवं परमात्मपद की प्राप्ति !
स्वयं को बचाने तथा स्वयं को मिटाने वाले ये बीज !
वही बीज एक दिन विशालवृक्ष बन जाता है, जो दूरदर्शी बनकर धरती माता की गोद में बैठ कर अपने-आपको मिटा देता है, गला देता है। जो बीज अपने आप को गलाना नहीं चाहता, यानी जो बीज इतना साहस नहीं कर पाता, वह कुछ दिन यथावत् रखा भर रहता है, बाद में प्रकृति की प्रक्रिया उसे सड़ा-घुनाकर समाप्त कर देती है। वह अपने बचाव के लिए सीलन में बैठकर थोड़ा-सा फूल जरूर जाता है, परन्तु उस सस्ती प्रगति का दुष्परिणाम और भी शीघ्र सामने आ जाता है। सीलन में फूला हुआ बीज अपना अस्तित्व और भी जल्दी खो बैठता है।
इसके विपरीत दूरदर्शी बीज उत्साहपूर्वक स्वेच्छा से गलते हैं और एक दिन वृक्ष की तरह विशाल बनते हैं। उनकी जड़ों को धरती माता खुराक देती है, मेघ उसको सींचने का अयाचित अनुग्रह करता है, सूर्य उसे ताप और प्रकाश का सुखद स्पर्श कराता है। इस प्रकार धरती माता की गोद में पलता हुआ बीज अंकुरित, पुष्पित, फलित होकर विशाल वृक्ष बन जाता है।
परन्तु जो बीज स्वयं के गलने में हानि और बचने में लाभ के मोहजाल में फँस जाते हैं, वे शीघ्र ही विनाश के मुख में पहुँच जाते हैं। उनकी यह कृपणता अथवा अदूरदर्शिता उन्हें तुच्छता और विनाशशीलता के गर्त में गिरा देती है। वे प्रगति की किसी भी दिशा में रंचमात्र भी आगे नहीं बढ़ पाते । "
यही बात आम्रवमार्ग और संवरमार्ग को चुनने वालों के सम्बन्ध में समझनी चाहिए। आम्नवमार्ग तात्कालिक लिप्सा-पूर्ति का, अपने भौतिक बचाव का, अदूरदर्शिता का, मूढ़ता का मार्ग है; जबकि संवर का मार्ग, आध्यात्मिक विकास का, भौतिक सम्पदा के प्रलोभनों को ठुकराने का, त्याग और संयम का तथा दूरदर्शिता एवं स्थितप्रज्ञता का मार्ग है।
अखण्ड ज्योति, जनवरी १९७८ पृ. ५३ से भावांश ग्रहण
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