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६९६ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आम्रव और संवर (६).
यदि किशोरावस्था से ही तात्कालिक खेल-खिलवाड़ों, अल्हड़पन एवं उद्दण्डता तथा मौजमस्ती से मन को सिकोड़ने का अभ्यास किया जाए तो युवावस्था में स्वैच्छिक अंकुश लगाने की आवश्यकता महसूस होगी। इस प्रकार युवावस्था में अपनी इन्द्रियों और मन पर लगाए हुए अंकुश का परिणाम यह होगा कि वृद्धावस्था में वह अपनी जिंदगी संवर-निर्जरारूप धर्माचरण में, तथा अपनी मन-वचन-काया की चंचलता और क्रियाओं का निरोध, क्लिष्ट चित्तवृत्तियों का निरोध करने में अपनी शक्तियों का उपयोग कर सकेगा।
संबर की दूरदर्शी दृष्टि की प्रेरणा
संबर की दूरदर्शी दृष्टि की महामूल्यवान् प्रेरणा देने वाला भगवान् महावीर का यह उपदेश कितना महत्त्वपूर्ण है- "अपनी आत्मा (मन और इन्द्रियों) का ही दमन करना चाहिए क्योंकि आत्मदमन ही कठिन है। जो अपने आपका स्वयं दमन (अंकुश ) कर लेता है, वह दोनों लोकों में सुखी होता है। श्रेयस्कर मार्ग यही है कि स्वयं संयम और तप के द्वारा आत्मा का (उन्मार्गगामी इन्द्रियों और मन को मनोज्ञ - अमनोज्ञ विषयों में रागद्वेष करने से रोककर ) स्वयं विवेकरूपी अंकुश द्वारा उपशमन (दमन) करे।""
संक्षेप में, आम्नवदृष्टि न अपनाकर अथवा दूसरे अपनी इन्द्रियों और मन पर बन्धन और ताड़न से अंकुश (दमन) करें, इसकी अपेक्षा स्वेच्छा से संवरदृष्टि अपनाकर स्वयं इन्द्रियों और मन पर अंकुश लगा ले।
अदूरदृष्टि वाले आम्रवप्रिय व्यक्ति का रवैया
आम्नवदृष्टि वाले व्यक्ति में ऐसी दूरदृष्टि नहीं होती, वह आवेश में, उत्तेजना में, देखादेखी, अविवेकपूर्वक अपनी शक्तियों का अपव्यय करता रहता है। बहुत से लोग संवरदृष्टि को पूर्णतया न समझ पाने के कारण शुभाम्नव में ही अपने जीवन की सार्थकता समझते हैं। वे पुण्य को ही धर्म समझकर पुण्यकार्यों से मिलने वाली सस्ती प्रतिष्ठा, प्रशंसा, वाहवाही और मिलने वाली सुख-सुविधाओं का लाभ उठाने के चक्कर में बड़े-बड़े समारोहों का आयोजन करते हैं, बड़े-बड़े जाति - भोज, मृतक (के पीछे ) भोज, आदि करते हैं, धर्म प्रचार के नाम पर बड़े-बड़े सम्मेलनों, परिसंवादों, रैली आदि का आयोजन करते हैं। इस प्रकार के थोथे आडम्बर के पीछे सस्ती प्रतिष्ठा पाने और स्वत्व-मोह को पोसने के ही अधिकांश स्वप्न होते हैं। उनके स्वयं के जीवन में संयम, सुखसुविधाओं पर
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अप्पा चैव दमेयव्वो, अप्पा हु खलु दुद्दम्मो । अप्पा दंतो सुही होई अस्सिं लोए परत्थ य ॥ वरं मे अप्पा दंतो संजमेण तवेण य । माऽहं परेहिं दमतो, बंधणेहिं बहेहि च ॥
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-उत्तराध्ययन. अ. १, गा. १५, १६
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