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७०६ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६)
पर पूर्वोक्त एकेन्द्रिय-द्वीन्द्रिय की अपेक्षा कर्मानवों की बाढ़ का कुछ कम प्रभाव होता है। फिर भी वे अपने सुख-दुःख आदि स्पष्ट भाषा में व्यक्त नहीं कर पाते।
इसके पश्चात् आते हैं-पंचेन्द्रिय जीव । इनके चार प्रकार हैं-नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव । नारकीय जीवों के पाँचों इन्द्रियाँ होते हुए भी, तथा उनमें अपनी वेदना को व्यक्त करने की शक्ति होते हुए भी पूर्वजन्मकृत अनन्त पापकर्मों की बाढ़ एवं कर्म बंध के फलस्वरूप असंख्य यातनाओं एवं तीव्र दुःखों से पीड़ित होने के कारण वे उसे रोक नहीं पाते, उन्हें तो भोगना ही पड़ता है। तीव्र वेदना के कारण मिथ्यात्वादि आम्रवों के फलस्वरूप निरन्तर नये-नये कर्मों का प्रवेश और बन्ध भी होता रहता हैं।
तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय जीवों को पाँचों इन्द्रियाँ मिलने पर भी आस्रवों की बाढ़ को रोकने (संबर) की शक्ति न होने से वे भी पीड़ित होते रहते हैं। वह बाढ़ उनकी ज्ञानादि चतुष्टय की अनन्तशक्तियों को मूर्च्छित, कुण्ठित, विकृत, आवृत एवं सुषुप्त कर देती है।
देव भी पंचेन्द्रिय होते हैं। उनमें अवधिज्ञान जन्म से ही होता है, किसी को मिथ्या अवधिज्ञान (विभंगज्ञान) होता है, किसी को सम्यक् अवधिज्ञान । तथा वैक्रिय शरीर भी उन्हें जन्म से प्राप्त होने के कारण वे वैक्रियशक्ति से नानारूपं और आकार-प्रकार बना सकते हैं। फिर भी कर्मानवों की बाढ़ को रोकने की पूर्णशक्ति उनमें नहीं होती । यद्यपि सम्यग्दृष्टि देवों में मिथ्यात्व आनव द्वार बंद हो जाता है, किन्तु अविरति आदि चार कषायों का सद्भाव तो न्यूनाधिकरूप में उनमें रहता ही है।
उच्च देवलोक के देवों में परिग्रह वृत्ति, अभिमान, लेश्या, कषाय बहुत ही मन्द होते हैं। फिर भी कर्मानवों की बाढ़ से न्यूनाधिक रूप में प्रभावित होने के कारण उन्हें भी जन्म-मरण रूप संसार में आवागमन करना पड़ता है। दीर्घकाल तक पूर्वकृत कर्मों को भोगने के लिए उसी देवयोनि में रहना पड़ता है।
अब रहा मनुष्य! उसमें भी संज्ञीपंचेन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय, दोनों प्रकार के मनुष्य होते हैं। असंज्ञी पंचेन्द्रिय मानवों की चेतना मूर्च्छित रहती है, वे द्रव्यमन के अभाव में अपने सुख-दुःख का संवेदन तथा अभिव्यक्तीकरण नहीं कर सकते । पूर्वकृत आनवों की बाढ़ की मार इतनी गहरी होती है कि वे उसका निरोध नहीं कर सकते।
किन्तु जो संज्ञी पंचेन्द्रिय तथा पर्याप्तक (पड्विध पर्याप्तियों से पूर्ण) होते हैं, उनकी पाँचों द्रव्येन्द्रिय, भावेन्द्रिय तथा नोइन्द्रिय ( मन, बुद्धि, चित्त हृदयरूप अन्त:करण) विकसित होती हैं। उन मनुष्यों की चेतना भी अत्यधिक विकसित होती है। वे कर्मास्रवों की बाढ़ को रोकने में समर्थ होते हैं।
१. एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक से जीवों के क्रमशः ये इन्द्रियाँ होती हैं- स्पर्शन-रसनप्राण-चक्षु श्रोत्राणि ।
- तत्त्वार्थ २/२०
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