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आम्नव मार्ग संसारलक्ष्यी और संवरमार्ग मोक्षलक्ष्यी ७०१ भी आपातरमणीय प्रतीत होते हैं, किन्तु उनका परिणाम भयंकर कर्मजनित दुःखरूप फलदाता तथा संयममय जीवन विनाशक होता है।'' भोगासक्त कर्मासवलिप्त, भोगविरक्त कर्मानवरहित ____ यह आम्नवदृष्टि वाले लोगों की आँखें खोलने के लिए पर्याप्त है। जो लोग आप्नव मार्ग का अनुसरण करके तात्कालिक लाभ की तथा क्षणिक तप्ति एवं सुखस्वाद की दृष्टि से इन्द्रियविषयों का बेखटके उपभोग करते हैं, उनके लिए भगवान् महावीर ने अपना स्पष्ट मोक्षलक्ष्यी संवर मार्ग का दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हुए कहा है-“जो भोगासक्त है, वह कर्मों से उपलिप्त होता है, और जो भोगों में आसक्त नहीं है, वह कर्मों से लिप्त नहीं होता। अतः भोगासक्त (आसवमार्गी) संसार में परिभ्रमण करता है, जबकि भोगों में अनासक्त (संवरमार्गी) संसार से मुक्त होता है।" आम्रव की पगडंडियों को न खोजें, संवर का राजमार्ग पकड़ें
इसलिए प्रत्येक विवेकवान् एवं आत्मार्थी व्यक्ति को जीवन के गहन वन में यात्रा करते समय अपना जीवन मोक्षलक्ष्यी संवर मार्ग पर आरूढ़ करना चाहिए। हम देखते हैं कि अधिकांश वनों में वन्य पशुओं और वन्यवासियों के जाने-आने से छोटी-मोटी पगडंडियाँ बन जाती हैं। देखने में ये रास्ते आकर्षक, व्यवस्थित और शौर्टकट प्रतीत होते हैं, किन्तु आगे चलकर ये रास्ते प्रायः लुप्त हो जाते हैं। शीघ्रता और आसानी से गन्तव्य स्थान को पहुँचने के लिए अदूरदर्शी यात्री बहुधा इन अनजानी पगडंडियों को पकड़ लेते हैं और सही रास्ते को छोड़ देते हैं।
जीवन-वन में ऐसी पगडंडियाँ बहुत हैं, जो लुभावनी और आकर्षक लगती हैं, और अदूरदर्शी एवं जल्दबाज लोग ऐसी पगडंडियाँ ही ढूँढ़ते हैं, जो गन्तव्य स्थान तक नहीं पहुँचातीं। बल्कि यात्री उन गलत पगडंडियों को शीघ्र कार्य बनाने के लोभ में पकड़कर भटक जाता है, अथवा बीच में ही कहीं दलदल में फँस जाता है।
पाप और अनीति का मार्ग उसी जंगल की पगडंडी की तरह है जो यात्री को 'भटका देता है और पापकर्म के दलदल में फंसा देता है-अशुभाम्नव का यह पथ मछली के लिए वंशी और चिड़ियों के लिए जाल के समान है। प्रसिद्धि, प्रशंसा, प्रतिष्ठा, स्वर्गलिप्सा, या परलोक में भोग साधन लिप्सा, वाहवाही आदि शुभानव के लुभावने आकर्षक मार्ग भी मनुष्य को कर्म की और उसके फलस्वरूप चतुर्गतिक संसार की
१. जहा य किंपाकफला मणोरमा, रसेण वण्णेण य भुज्जमाणा।
ते खुड्डए जीविय पच्चमाणा, एवोपमा कामगुणा विवागे॥-उत्तराध्ययन अ. ३२, गा. २० २. उवलेवो होइ भोगेसु, अभोगी नोवलिप्पइ। .. भोगी भमइ संसारे, अभोगी विप्पमुच्चइ॥ -उत्तराध्ययन, अ. २५, गा.४१
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