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७०२ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६)
दलदल में फँसाने वाले हैं। अभीष्ट कामनाओं की जल्दी से जल्दी अधिक से अधिक मात्रा में पूर्ति हो जाए, इस लालच से लोग जीवन के ध्येयप्रापक संवर का राजमार्ग छोड़कर आसव की संसारलक्ष्यी अवांछनीय पगडंडी अपना लेते हैं। इस उतावली और आपाधापी में वे अपने सदद्देश्य और अन्तिम ध्येय को भूल जाते हैं, जिसके फलस्वरूप विविध शुभाशुभ कर्मों के आनवण से वे कर्मों का भारीभरकम बोझ लाद देते हैं। जीवन-वन का अभीष्ट राजमार्ग : संवर का शुद्धपथ - जीवन-वन का अभीष्ट राजमार्ग है-संवर का शुद्ध पथ। संवर का राजमार्ग . अहिंसा, सत्य, समिति, गुप्ति, परीषह सहिष्णुता, तितिक्षा, क्षमादि धर्म के कारण पक्का और वीतराग देवों द्वारा अनुभूत, अभ्यस्त एवं निश्चित पथ है। संवर के राजमार्ग पर चलते हुए अन्तिम लक्ष्य-मोक्ष तक-कर्ममुक्ति तक पहुँचना समय-साध्य तो है, पर उसमें कहीं भटकने, फँसने या अनिश्चितता का भय नहीं है, उसमें कहीं आत्मा के कमों से बोझिल होने का जोखिम नहीं है। उस राजमार्ग में अनीति, अधर्म, पाप और कर्मों के, आसव का वह दलदल नहीं है, और न ही तृष्णा, लालसा और आसक्ति की कंटीली झाड़ियाँ हैं, और न भय और प्रलोभन की ऊबड़-खाबड़ जमीन है। इसलिए इस राजमार्ग में फँसने और जीवन के सदुद्देश्य को भूलने का खतरा भी नहीं है। इसलिए आसव की लुभावनी और आकर्षक पगडंडियों को न खोजकर संवर के राजमार्ग को अपनाने की ही अनुभवी वीतराग पुरुषों की प्रेरणा है। लुभावने आम्रवमार्ग से बचो, संवरनिष्ठ बनो
इसी सन्दर्भ में भगवान् महावीर ने लुभावने आसव मार्ग से बचने हेतु संवर- मार्गी साधकों को चेतावनी देते हुए कहा-“कामभोगों के मन्द (कोमल) स्पर्श भी बहुत
लुभावने होते हैं। (संवरमार्गी साधक को) तथाप्रकार के उन अनुकूल प्रतीत होने वाले स्पर्टी (इन्द्रिय-विषयों) में मन को जरा भी संलग्न नहीं करना चाहिए। अर्थात्-वह सावधान रहकर उन अनुकूल विषयों के प्रति रागभाव और प्रतिकूल विषयों के प्रति द्वेषभाव जरा भी न करे। इसके लिए वह (आत्मरक्षक संवरनिष्ठ साधक) क्रोध से अपने को बचाए, अहंकार (मान) को हटाए, माया (छल-कपट) का सेवन न करे और लोभ का परित्याग करे।
इससे भी आगे बढ़कर संवर मार्ग पर चलने वाले साधकों के लिए अध्यात्ममनीषियों का यह मार्गदर्शन भी कितना अनूठा है?-"हे साधक! तू आत्मबाह्य तथा
१. अखण्ड ज्योति फरवरी १९७५ पृ. १ से भावांश ग्रहण २. मंदा य फासा बहुलोहणिज्जा, तहपगारेसु मणं न कुज्जा।
रक्खेज्ज कोहं विणएज्ज रागं, मायं न सेवे पयहेज्ज लोहं॥ -उत्तराध्ययन अ. ४ गा. १२
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