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६९४ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६)
ठगी, डकैती एवं लूटपाट जैसे कुकृत्य करने वाले लोग देखते हैं कि थोड़ी-सी चतुरता और हिम्मत रखने से कितना बड़ा आर्थिक लाभ मिल गया। यदि उतना ईमानदारी से कमाया जाता तो अधिक समय लगता और अधिक श्रम करना पड़ता। इस प्रकार अदूरदर्शिता से सोचने पर उस समय तो ऐसा लगता है कि अनाचार और कदाचार अपनाने में लाभ और सदाचार एवं धर्माचरण को अपनाने में हानि है।
जो विद्यार्थी सालभर पढ़ाई में जी नहीं लगाता, अध्ययन से जी चुराता है, इधरउधर मटरगश्ती करता है, परन्तु परीक्षा के समय वह परीक्षा भवन में नकल करता है, वहाँ गश्त लगाने वाला निरीक्षक जब रोकता - टोकता है, तो वह उसे छुरा दिखाता है, मारने की धमकी देता है। इस प्रकार के कदाचौर से वह तिकड़मबाज परीक्षार्थी भले ही तात्कालिक लाभ प्राप्त कर ले। वह पास हो जाय या स्कूल में अच्छा विद्यार्थी माना जाए, घर में व परिवार में भले ही वह स्थूलदृष्टि वाले लोगों की अदूरगामी नजरों में प्रशंसापात्र भी बन जाए; किन्तु नीति, धर्म और अध्यात्म की दृष्टि से - कर्मविज्ञान की दृष्टि से वह विद्यार्थी बालू की नींव पर स्थित अपने जीवन भवन की नींव को कच्ची और खोखली ! बना देता है। उस पर स्थित इसके जीवन भवन की इमारत शीघ्र ही धराशायी हो जाती.
है।
इसी प्रकार आनव दृष्टि वाला कदाचारी तात्कालिक लोभ और स्वार्थपूर्ति की धुन में पतन और विनाश का मार्ग चुनता है। उसके जीवन की आधारशिला मानवता कच्ची और खोखली हो जाती है। कर्मों के आम्रव और बन्ध के कारण वह उस कदाचार के परिणामों को दीर्घकालिक रोग, मुकदमा, गृहकलह, संकट, चिन्ता, दण्डभय आदि के रूप में भोगता है। नतीजा यह होता है कि कर्मविज्ञानसम्मत संवरदृष्टि से अनभिज्ञ व्यक्ति कर्मफल भोगते समय भी प्रायः हाय तोबा मचाता है, आर्त्तध्यान करता है, समभाव से उस कष्ट को भोग नहीं पाता, जिसके कारण वह पुराने कर्मों को पूर्णतः क्षयं नहीं कर पाता और नये-नये कर्मों के आगमन को न्यौता दे देता है।
अदूरदर्शी आम्नवदृष्टि और दूरदर्शी संवरदृष्टि व्यक्तियों द्वारा शक्तिव्यय में अन्तर
प्रत्येक 'मनुष्य में शक्तिकोष संचित है। परन्तु उस शक्ति को अज्ञानता, अदूरदर्शिता और अन्धश्रद्धा के आवेश में व्यक्ति अधिकाधिक व्यर्थ के कामों में, प्रमाद, आलस्य, गपशप, लड़ाई-झगड़े, विकथा, ईर्ष्या, द्वेष, छल-कपट, क्रोध, अहंकार, लोभ एवं स्वार्थान्धता आदि दुर्गुणों के चक्कर में खर्च कर डालता है।
प्रत्येक बालक को बचपन से ही संयम और संवर की बात समझाई जाए, उसके संस्कारों और आचरण में यदि वह घुलमिल जाए तो उसकी वह संवरदृष्टि आजीवन स्थायी रह सकती है। परन्तु दुःख इस बात का है, कि माता-पिता या अभिभावक स्वयं
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