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आनव मार्ग संसारलक्ष्यी और संवरमार्ग मोक्षलक्ष्यी ६९१
मोक्ष-पुरुषार्थ को पूर्णतया सफल करते हैं। आनव का, यानी प्रेय का पथ छोड़कर, दूरदर्शी बनकर संवर का, यानी श्रेय का श्रेष्ठ पथ अपनाने वाले स्वयं-प्रबुद्ध नमिराजर्षि की दूरदर्शिता की परीक्षा कर लेने के बाद इन्द्र ने उनकी प्रशंसा में ये ही उद्गार निकाले थे
"आपने क्रोध को जीत लिया है, मान (अहंकार) को पराजित कर दिया है, माया (छल-कपट) को निराकृत कर दिया (दूर ठेल दिया) है, और लोभ को वश में कर लिया है। सचमुच आपकी ऋजुता (सरलता) उत्तम है, आपकी मृदुता भी अद्भुत है, और श्रेष्ठ है, आपकी क्षमा भी उत्तम है और उत्तम है आपकी निर्लोभता ! भगवन्! आप इस लोक में भी उत्तम हैं और परलोक में भी उत्तम होंगे। (क्योंकि आपने जो संवर का आध्यात्मिक पथ अपनाया है, उससे) आप कर्मरज से रहित होकर लोक के सर्वोत्तम स्थानसिद्धि-मुक्ति को प्राप्त करेंगे।""
यह है - संवर का श्रेय पथ अपनाने वाले दूरदर्शी मानव के उज्ज्वल भविष्य का निदर्शन !
यदि नमिराजर्षि प्रारम्भ में ही इन्द्र के कहने के अनुसार संसार की भूलभुलैया में फंस जाते; क्षत्रियवर्ण के अभिमान से प्रेरित होकर अपने राजमहल, अन्तःपुर, अपने माने हुए राज्य, तथा ब्राह्मण परम्परा के अनुसार विविध कर्मकाण्डों, भौतिक यज्ञयागों में फँस जाते और लौकिक प्रशंसा, प्रसिद्धि और प्रतिष्ठा के चक्कर में पड़कर प्रेयमार्ग को अपना लेते तो उनका उज्ज्वल भविष्य ही बिगड़ जाता।
उनका वह संसार मार्ग में किया गया पुरुषार्थ उत्तम परिणामदायक न होता,बल्कि यों कहना चाहिए कि वे अपने आध्यात्मिक विनाश को निमंत्रण दे देते और कर्मराशि संचित करके संसार के जन्म-मरण के कुचक्र में ही पड़े रहते । परन्तु उन्होंने उस सुख-सुविधा की, कष्ट-कठिनाई की कोई परवाह नहीं की, प्रलोभनों के जाल में स्वयं को फँसने से बचा लिया और चल पड़े-संवर के श्रेष्ठतम मार्ग पर निर्द्वन्द्व होकर, निश्चिन्त और निर्भय होकर ।
नव-पंथिक स्वयं को बचाने और संवरपथिक स्वयं को मिटाने के लिए उद्यत
निष्कर्ष यह है - आम्रमार्ग को अपनाने वाला व्यक्ति स्वयं को अपने स्वत्व - मोह , अपने अहंकार को, अपने साथी बने हुए क्रोध, लोभ, काम और कपट को मिटाना
"अहो ! ते निज्जिओ कोहो, अहो ! ते माणो पराजिओ । अहो! ते निरक्किया माया, अहो ! ते लोभो वसीकओ ॥” "अहो ! ते अज्जवं साहू, अहो ! ते साहू मद्दवं ! अहो ते उत्तमा खंती, अहो ते मुत्ति उत्तमा । " "इहं सि उत्तमो भंते!, पेच्चा होहिसि उत्तमो । लोगुत्तमुत्तमं ठाणं सिद्धिं गच्छसि नीरओ ॥”
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- उत्तराध्ययन अ. ९/ गा. ५६-५७-५८
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