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पुण्य : कब और कहाँ तक उपादेय एवं हेय? ६८३
करते हुए कहा है-“भगवन् ! आपके गुण-स्तवन द्वारा मैंने जो पुण्य अर्जित किया है, उसके फलस्वरूप आपके चरणकमलों में सदैव मेरी उत्कृष्ट भक्ति बनी रहे।" ____ अतः पुण्यफल की कथा विकथा नहीं है, अपितु धर्मकथा का अंग है, जिसे संवेदिनी कथा कहा गया है। पुण्योपार्जन की प्रेरणा : क्यों और किस लिए?
आत्मानुशासन में स्पष्ट कहा गया है-प्राज्ञविद्वज्जन निश्चय दृष्टि से आत्मपरिणाम को ही पुण्य और पाप का कारण बताते हैं। इसलिए अपने निर्मल परिणामों द्वारा पूर्वोपार्जित पाप की निर्जरा, नवीन पापों का निरोध तथा पुण्य का उपार्जन करना चाहिए। हे भव्यजीव ! तू पुण्य-कार्य कर, क्योंकि पुण्यवान् जीव को असाधारण उपद्रव भी प्रभावित एवं अभिभूत नहीं कर सकता। प्रत्युत वह विपदा (उपद्रव) ही उसके लिए सम्पदा का साधन बन जाती है। इसलिए योग्यायोग्य कार्य का विचार करने वाले श्रेष्ठ व्यक्ति भली-भाँति विचार करके इहलौकिक कार्यों-सांसारिक कार्यों के विषय में विशेष प्रयल नहीं करते, किन्तु आगामी भवों को श्रेयस्कर बनाने के लिए वे सतत प्रीतिपूर्वक अतिशय प्रयत्न करते रहते हैं।" . कार्तिकेयानुप्रेक्षा में भी कहा गया है-“हे प्राणियो! धर्म (पुण्य) और अधर्म (पाप) का माहात्य विविध प्रकार से प्रत्यक्ष देखकर सदैव धर्म (पुण्य) का आचरण करो और पाप से दूर रहो।"
आगे कहा गया है-“यह जीव लक्ष्मी तो चाहता है किन्तु सद्धर्म (पुण्यकर्मों) के प्रति प्रीति नहीं करता। क्या कहीं बिना बीज के भी धान्य की उत्पत्ति देखी जाती है ? (पूर्वोपार्जित) धर्म (पुण्य) के प्रभाव से उद्यम न करने वाले मनुष्य को भी लक्ष्मी प्राप्त हो जाती है। __"आत्मानुशासन" में स्पष्ट कहा गया है-“बदि पूर्वोपार्जित पुण्य है तो आयु, लक्ष्मी, और शरीरादि भी यथेप्सित प्राप्त हो सकते हैं, किन्तु यदि वह पुण्य अर्जित नहीं है तो स्वयं को अनेक प्रकार से क्लेशित करने (कष्ट देने) पर भी ये सब बिलकुल प्राप्त नहीं हो सकते।" • 'अनगारधर्मामृत' में भी कहा है-"पुण्य यदि उदय के सम्मुख है तो तुम्हें सुख के १. भगवंस्तव गुणस्तोत्राद् यन्मया पुण्यमर्जितम्। तेनाऽस्तु त्वत्पदाम्भोजे पराभक्तिः सदापि मे॥"
-महापुराण ३३/१९६ २. महाबंधो भा. १ (पं. सुमेरुचन्द्र दिवाकर) प्रस्तावना से पृ. ६९ । ३. आत्मानुशासन २३, ३१, ३७ ४, कार्तिकेयाऽनुप्रेक्षा, मू. ४३७, ४२८, ४३४।
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