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प्रेयमार्ग और श्रेयमार्ग ही आम्रव और संवर का मार्ग
मनुष्य के समक्ष दो मार्ग सदा से खुले रहते हैं। एक है-प्रेय का मार्ग और दूसरा है-श्रेय का मार्ग | इन्हें ही जैन कर्मविज्ञान की भाषा में कह सकते हैं- आम्रव का मार्ग और संवर का मार्ग। पहला कर्मों के आने का पथ है और दूसरा कर्मों को आने से रोकने का। एक तात्कालिक प्रलोभन का संसारलक्ष्यी मार्ग है, जो परिणाम में कर्मबन्धन के फलस्वरूप विभिन्न गतियों और योनियों में परिभ्रमण कराता है। जबकि दूसरा अपनी शक्तियों को प्रलोभन और तात्कालिक सुन्दर दिखने वाले पतन के फिसलन के रास्ते से बचाकर आध्यात्मिक उन्नति के पथ पर लगाने का मोक्षलक्ष्यी मार्ग है। पहले में झटपट काम बना लेने, स्वार्थ सिद्ध कर लेने, भौतिक आकांक्षाओं की पूर्ति कर लेने, तथा कभीकभी सस्ती प्रसिद्धि, प्रतिष्ठा और प्रशंसा प्राप्त कर लेने का प्रयास होता है, जो अपनी मानसिक, वाचिक, कायिक शक्तियों को कर्मबन्धन के पाश में बांधकर संसार के रास्ते पर ले जाता है; जबकि दूसरे में, इन सब भयों, प्रलोभनों, तुच्छ स्वार्थों एवं तुच्छ उपलब्धियों के जाल से स्वयं को बचाकर अपने तन, मन और वचन की शक्तियों को इन सबसे विमुख करके निःश्रेयस के कर्ममुक्ति के पथ पर विचरण करने में लगाया जाता
है।
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आस्रव मार्ग संसारलक्ष्यी और संवरमार्ग मोक्षलक्ष्यी
इसमें सर्वप्रथम अहिंसा, सत्य, क्षमा, मार्दव, आर्जव, परीषहविजय, कषायविजय, इन्द्रियविजय, मनोनिग्रह आदि का कठिन मार्ग चुना जाता है, और सदैव सावधान होकर अप्रमत्त रहकर चलना होता है।
भगवान् महावीर की भाषा में - प्रत्येक कदम शंकित होकर, पद-पद पर आसक्ति और मूर्च्छा का भीति और लिप्सा का भयंकर पाश बिछा हुआ है, इस प्रकार मानकर चले, फूँक फूँक कर कदम रखें।""
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'चरे पयाइं परिसंकमाणो, जं किंचि पासं इह मन्नमाणो ।"
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- उत्तराध्ययन अ: ४ गा. ७
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