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६८२ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आस्रव और संवर (६) गणधर, ऋषि, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, वैमानिक आदि देवगण एवं विद्याधरों की ऋद्धियाँ पुण्य के फल हैं।
उत्तराध्ययन, उपासकदशांग, ज्ञाताधर्मकथा, अनुत्तरौपपातिक, औपपातिक, राजप्रश्नीय, सुख-विपाक आदि आगमों में यत्र-तत्र पुण्य फल की कथाएँ विस्तृत रूप से दी गई हैं।
भक्तामर स्तोत्र में भी कहा गया है-"आपकी संकथा भी जगत के पापों का नाश करने वाली है।
'जिनसहस्रनाम' में जिनेन्द्र भगवान् के नामों में उन्हें पुण्यगी (पुण्यवाणीयुक्त), पुण्यवाक्, पुण्यनायक, पुण्यधी, पुण्यकृत्, पुण्यशासन आदि भी कहा है।
'दिग्वासादिशतम्' में उन्हें पुण्यराशि भी कहा है।' कल्याण मन्दिर स्तोत्र को भगवान् को कारुण्य और पुण्य की निवासभूमि' कहा
पद्मनन्दि-पंचविंशतिका में आचार्य ने जिनेन्द्र भगवान् की स्तुति करते समय स्वयं को 'पुण्य का गृह' (पुण्य निलय) कहा है।
इसके अतिरिक्त जिनेन्द्र देव की आराधना-उपासना एवं अर्चा द्वारा पुण्य की प्राप्ति होती है। इस तथ्य को भरतचक्री ने समवसरण में भगवान् ऋषभदेवं की स्तुति
१. (प.) काणि पुण्णफलाणि? (ङ) तित्थयर-गणहर-रिसि-चक्कवट्टी-बलदेव-वासुदेव-सुर-विज्जाहर-ऋद्धीओ।"
-धवला १/१,१२/१८५ देखें-उत्तराध्ययन, उपासकदशांग, ज्ञाताधर्मकथा, अनुत्तरौपपातिक, औपपातिक, राजप्रश्नीय,
सुखविपाक आदि में विस्तृत रूप से वर्णित पुण्य फल सूचक कथाएँ। ३. त्वत्संकथाऽपि जगतां दुरितानि हन्ति।
-भक्तामर स्तोत्र काव्य ९. ४. गुणादरी गुणोच्छेदी निर्गुणः पुण्यगीर्गुणः।
शरण्यः पुण्यवाक् पूतो वरेण्यः पुण्यनायकः। अगुण्यः पुण्यधीर्गणः, पुण्यकृत् पुण्यशासनः। धर्मारामो गुणग्रामः पुण्यापुण्य-निरोधकः।। शुभयुः सुखसाद्भूता पुण्यराशिरनामयः।
धर्मपालो जगत्पालो धर्मसाम्राज्य-नायकः॥ । -जिनसहस्रनाम ४,५,१० ५. "त्वं नाथ ! दुःखिजनवत्सल ! हे शरण्य ! कारुण्य-पुण्य-वसते ! वशिनां वरेण्य !
___-कल्याण मन्दिर स्तोत्र, काव्य ३९ ६. धन्योऽस्मि पुण्यनिलयोऽस्मि निराकुलोऽस्मि, शान्तोऽस्मि नष्टविपदस्मि चिदस्मि देव। श्रीमज्जिनेन्द्र भवतोऽनि युगं शरण्य, प्राप्तोऽस्मि चेदहमतीन्द्रिय-सौख्य कारि॥
-क्रियाकाण्ड चूलिका
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