________________
६८४ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) अन्य उपाय करने से क्या मतलब है? और यदि वह सम्मुख नहीं है तो भी अन्यान्य सुखोपाय करने से क्या प्रयोजन है?'' सम्यग्दृष्टि का पुण्य ही अभीष्ट एवं उपादेय, मिथ्यादृष्टि का नहीं
पुण्य सदैव प्रशस्तरागवश उपार्जित होता है, किन्तु वह प्रशस्त राग दो प्रकार से फलित होता है। आप्त सर्वज्ञोपदिष्ट तत्त्वों और पदार्थों के प्रति प्रशस्तभूत राग होने पर शुभोपयोग से उपार्जित पुण्य का फल (परम्परा से) मोक्ष प्राप्ति होता है। किन्तु इसके विपरीत अल्पज्ञ छद्मस्थ द्वारा पुण्य यद्यपि उपार्जित होता है-प्रशस्तराग से तथा शुभोपयोग से ही, किन्तु वह प्रशस्त राग मिथ्यात्वपूर्वक दान, शील, तप, व्रत, नियम, स्वाध्याय, ध्यान आदि में होने से स्वर्गादि फल प्राप्ति का कारण बन सकता है, परम्परा से मोक्ष प्राप्ति का नहीं। - 'प्रवचनसार' में इसी तथ्य का उद्घाटन किया गया है। जैसे-इस जगत् में अनेक प्रकार की भूमियों में पड़े (बोये) हुए बीज धान्य पकने के काल में अनुकूल या. विपरीतरूप में फलित होते हैं। उसी प्रकार प्रशस्तराग (द्वारा उपार्जित पुण्य) भी वस्तुभेद से प्रतिकूल या अनुकूल रूप में फलित होता है। सर्वज्ञ आप्त-स्थापित वस्तुओं में (प्रशस्त रागवश) शुभोपयोग का फल पुण्य संचय पूर्वक (परम्परा से) मोक्ष प्राप्ति है। जबकि छमस्थ (अल्पज्ञ) स्थापित वस्तुओं में कारण वैपरीत्य होने से मोक्षशून्य केवल 'पुण्यास्पद (देवत्व या मनुष्य) की प्राप्ति है, यह फल विपरीतता है।'' सम्यग्दृष्टि का पुण्य पुण्यानुबन्धी, मिथ्यादृष्टि का पापानुबन्धी ___ आशय यह है कि पुण्य दो प्रकार का है-एक सम्यग्दृष्टि का और दूसरा मिथ्यादृष्टि का। पहला परम्परा से मोक्ष का कारण है, जबकि दूसरा केवल स्वर्गसम्पदा का। सम्यग्दृष्टि का पुण्य निदान भोग मूलक धर्म-प्राधान्य से रहित होता है, जबकि मिथ्यादृष्टि का पुण्य निदान सहित एवं भोगमूलक धर्म के प्रति रुचिवाला होने से वह आगे जाकर नरकादि कुगतियों का कारण होता है। . जैसे-ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती का पुण्य निदानयुक्त एवं एकान्त भोगमूलक होने से वह नरक गति का कारण बना। क्योंकि मिथ्यादृष्टि की भोग मूलक धर्म के प्रति श्रद्धा और रुचि होती है। वह मोक्षमूलक धर्म को जानता भी नहीं, न ही जानने-मानने में उसकी रुचि और श्रद्धा होती है। अतएव सम्यग्दृष्टि का पुण्य पुण्यानुबन्धी होता है; जबकि
१. (क) आत्मानुशासन ३७
(ख) अनगार धर्मामृत १/३७, ६० २. (क) प्रवचनसार मू. २५५
(ख) वही, त. प्र. २५६
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org