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पुण्य : कब और कहाँ तक उपादेय एवं हेय? ६७५
देने) के लिये अभ्युद्यत रहे। (६) शैक्ष (नवदीक्षित) आचार-गोचर को सम्यक् बोध कराने के लिए उद्यत रहे; (७) ग्लान (रुग्ण, अशक्त एवं अतिवृद्ध) साधु की
अग्लानभाव से वैयावृत्य (परिचर्या-सेवा शुश्रूषा) करने के लिए अभ्युत्थित रहे; (८) साधर्मिकों में परस्पर कलह उत्पन्न होने पर निष्पक्षत्व एवं मध्यस्थभाव से उसे उपशान्त करने हेतु तत्पर रहे।''
ये आठों ही अभ्युत्थान सूत्र व्यवहार धर्म (पुण्योपार्जनकारी) रूप शुभोपयोग में स्थिर होने, साथ ही अशुभोपयोग (पापवृत्ति-प्रवृत्ति) से दूर रहने के सूचक हैं।
दशवैकालिक सूत्र में एक गाथा द्वारा स्पष्ट बता दिया है कि “अपना मनोबल, शारीरिक शक्ति (या उत्साह) तथा अपनी श्रद्धा और आरोग्य, को देखकर तथा क्षेत्र तथा काल को विशेषरूप से जानकर फिर स्वयं को उस (भेदरलत्रय रूप) धर्म-प्रवृत्ति में नियुक्त करे। ___आचारांग सूत्र में भी विमोक्ष नामक अध्ययन में वस्त्रप्रकल्प, आहारप्रकल्प,
वैयावृत्य प्रकल्प आदि में अपनी शक्ति, योग्यता, क्षमता आदि देखकर यथायोग्य संकल्प करने का विधान है, जो शुभोपयोग में स्थिर रखने के हेतु से उपदिष्ट है।
उत्तराध्ययनसूत्र के संयतीय अध्ययन में भी स्पष्टतः कहा गया है-"जो मनुष्य पापकर्ता हैं वे घोर नरक के गर्त में गिरते हैं, तथा जो मनुष्य आर्य धर्म (पुण्य) का आचरण करते हैं, वे दिव्य (देव) गति को प्राप्त करते हैं।"
इसी सूत्र के पंचम अध्ययन में संयत, जितेन्द्रिय एवं पुण्यशालियों के मरण को सकाममरण कहकर उसे अनाकुल (अतिप्रसन्न) एवं आघात रहित बताया है। साथ ही सकाममरण वाले दो प्रकार के साधक बताए हैं-(१) सामायिक आदि शिक्षाव्रती सद्गृहस्थ एवं (२) संवृत मिक्षु।
शिक्षाव्रती शुभोपयोगी होता है, अतः उसकी गति देवलोक की तथा संवृत भिक्षु शुद्धोपयोगाभ्यासी शुभोपयोगी होता है, अतः उसकी मरणोत्तर स्थिति दो प्रकार की बताई है-या तो वह सर्वदुःखों से रहित सर्वकर्ममुक्त हो जाता है, या महर्द्धिक देव बनता है।"
१. स्थानांगसूत्र स्थान ८ सू. १११ २. (क) बलं थामं च पेहाए सद्दामारुग्गमप्पणो।
खेतं कालं च विण्णाय तहऽप्पाणं निउंजए। -दशवकालिक ८/३२ (ख) जरा जाव न पीडेइ वाही जाव न वड्ढइ। जाविदिया न हायति, ताव धम्म समायरे॥
-वही, अ.८ गा.३३ ३. देखें आचारांग सूत्र प्रथम श्रुतस्कन्ध का विमोक्ष नामक ८वां अध्ययन ४. (क) उत्तराध्ययन १५/२५
(ख) वही, अ. ५ गा. १८ (ग) वही, अ. १/४८
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