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कर्म आने के पाँच आसव द्वार ६०१
अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पाँचों को संवर द्वार बताया है। यही कारण है कि दशवकालिक और स्थानांगसूत्र में इसी अपेक्षा से संवर का लक्षण दिया गया है"प्राणवध (हिंसा) आदि आम्नवों का निरोध संवर है;" तथा "जिस परिणाम से कर्मों के आगमन (आसव) के कारण प्राणातिपात आदि आसवों का संवरण-निरोध किया जाता है, उसे संवर कहते हैं।" वस्तुतः प्रश्नव्याकरणोक्त ये पाँच आम्नवद्वार और पाँच संवरद्वार निम्नोक्त बीस आम्रवद्वारों और बीस संवरद्वारों (कपाटों) में गतार्थ हो जाते
आम्रवों के बीस द्वार और संवरों के बीस कपाट
द्रव्यानव के नवतत्त्व आदि में बीस आम्रवद्वार बताए हैं, साथ ही द्रव्यसंवर के बीस कपाट भी उन द्वारों को बन्द करने हेतु बताए हैं।
आसव के बीस द्वार क्रमशः इस प्रकार हैं-(9) मिथ्यात्व, (२) अव्रत (पंचेन्द्रिय तथा मन को वश में न रखना, षट्कायिक जीवों की हिंसा से निवृत्त न होना), (३) पंचविध प्रमाद, (४) चतुर्विध कषाय और नवविध नोकषाय, (५) योग (मन-वचन-काया की प्रवृत्ति), (६) प्राणातिपात, (७) मृषावाद, (८) अदत्तादान, (९) मैथुन, (१०) परिग्रह, (११ से १५) श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय को रागद्वेषादियुक्त निरंकुश प्रवृत्त करना, (१६ से १८) मनोबल, बचनबल
और कायबल का दुरुपयोग करना, (१९) वस्त्र-पात्रादि उपकरणों को असावधानी से उठाना और रखना, और (२०) सूई, तृण आदि पदार्थ भी अयतना से लेना रखना। इन बीस द्वारों से कर्म आते हैं।
इसी प्रकार संवर के २० प्रकार भी इन आम्रवद्वारों को बन्द करने हेतु हैं-(१) सम्यक्त्व, (२) विरति, (३) अप्रमाद, (४) कषायत्याग, (५) योग-स्थिरता, (६) जीवों पर दया करना, (७) सत्य बोलना, (८) अदत्तादान (चोरी) से विरत होना, (९) ब्रह्मचर्य-पालन, (१०) ममत्व-त्याग, (११ से १५) पूर्वोक्त पाँचों इन्द्रियों को वश करना, (१६-१७-१८) मन-वचन-काय पर नियंत्रण करना, अंकुश रखना, (१९) भाण्डोपकरणों को यतनापूर्वक उठाना और रखना और (२०) सूई, तृण आदि छोटी-छोटी
वस्तुएँ भी यतनापूर्वक उठाना-रखना। इन बीस कपाटों से आते हुए कमों को रोका जाता है। संवर के ये बीस कपाट हैं, जो आस्रवद्वारों को बंद करने के लिये पर्याप्त हैं।' नगर-रक्षा की तरह आत्म-रक्षा के लिए आम्रवद्वारों को भलीभाँति बंद करो ... तत्त्वार्थ राजवार्तिक में आनवद्वारों के बंद करने से संवर की उपलब्धि की १. देखें-प्रश्नव्याकरण सूत्र में पाँच आम्रवद्वार और पाँच संवरद्वारों के नाम और विवेचन। . २. जैन तत्त्व कलिका (आचार्य श्री आत्मारामजी म.) पृ. ९७-९८ ।
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