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योग-आम्रव : स्वरूप, प्रकार और कार्य ६१९
के निर्णय से रहित ज्ञानगोचर पदार्थ अनुभय है। जैसे-'यह कुछ प्रतिभासित देता है। इस प्रकार के सामान्यरूप से प्रतिभासित पदार्थ में स्वार्थ क्रियाकारी विशेष के निर्णय का अभाव होने से न ही उसे सत्य कहा जा सकता है और न ही असत्य। वह अनुभय है।'
निष्कर्ष यह है कि घट में घट का विकल्प सत्य है, घट में पट का विकल्प असत्य है। कुण्डी में जल धारण देखकर घट का विकल्प उभय है। और 'ओ देवदत्त!' इस प्रकार की आमंत्रणी आदि भाषा में उत्पन्न होने वाला विकल्प अनुभय है। अथवा 'यह कन्या काल के द्वारा ग्रहण की गई है। ऐसा विकल्प भी ‘अनुभय' है। क्योंकि काल का अर्थ- ' मृत्यु और मासिक धर्म, दोनों हो सकते हैं।
अतः सत्य, असत्य, उभय और अनुभय, इन चार प्रकार के अर्थों को जानने और कहने में जीव के मन व वचन की प्रयलरूप जो प्रवृत्ति-विशेष होती है, उसी की सत्यादि मनोयोग तथा सत्यादि वचनयोग कहते हैं। मनोयोग के चारों भेदों का वचन-निमित्तक लक्षण
यह तो सबका अनुभूत सत्य है कि हम कोई भी विचार करते हैं तो मन में पहले उस विचार की अव्यक्त- मौन, अन्तर्जल्प-भाषा उत्पन्न होती है। इसलिए केवल व्यक्त भाषा-यानी भाष्यमाणी भाषा ही भाषा (वचन) नहीं है, अभाष्यमाणी (अव्यक्त भाषा) भी अन्तर्जल्प भाषा (वचन) होती है।
इसलिए 'धवला' में इन चारों का अर्थ स्पष्टरूप से प्रतिपादित किया गया है"समनस्क जीवों में वचन प्रवृत्ति मनपूर्वक देखी जाती है, क्योंकि मन के बिना उनमें वचन-प्रवृत्ति नहीं पाई जाती। इसलिए इन चारों का लक्षण इस प्रकार भी हो सकता हैसत्यवचन-निमित्तक मन से होने वाले योग को सत्यमनोयोग, असत्यवचन निमित्तक मन से होने वाले योग को असत्य मनोयोग, और सत्य-असत्य इन दोनों रूप वचन-निमित्तक मन से होने वाले योग को उभय-मनोयोग तथा पूर्वोक्त तीनों प्रकार के वचनों से भिन्न आमंत्रणादि अनुभयरूप वचन-निमित्तक मन से होने वाले योग को अनुभय-मनोयोग कहना चाहिए"। .. यद्यपि यह कथन मुख्यार्थ प्रतिपादक नहीं है, उपचरित है; क्योंकि इस कथन की समग्र मन के साथ व्याप्ति नहीं है। वचन की सत्यादिकता से मन में सत्य आदि का उपचार किया जाता है। इसलिए निर्दोष अर्थ के लिए इन चारों का सीधा मन से सम्बन्धित अर्थ ग्रहण करना चाहिए। अर्थात्-जहाँ जिस प्रकार की वस्तु विद्यमान हो, वहाँ उसी प्रकार १.. (क) गोम्मटसार (जीवकाण्ड) (जीवतत्त्व प्रबोधिनी टीका) २१४/४७५ : (ख) वही, (जीवकाण्ड) २१७/४७५ २. गोम्मटसार जीवकाण्ड (जीवतत्त्व प्रबोधिनी) २१७/४७५
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