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६२२ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६)
होता है, वह वचनयोग है। अथवा सत्यादि चार प्रकार के वचनों में जो अन्वयरूप से रहता है, उसे सामान्य वचन कहते हैं। उस वचन से उत्पन्न हुए आत्म-प्रदेशों के परिस्पन्दरूप वीर्य के द्वारा जो योग-प्र ग-प्रयत्न होता है, उसे वचनयोग कहते हैं। धवला में अन्य दृष्टि से भी वचनयोग का लक्षण किया गया है - भाषावर्गणा के पुद्गल स्कन्धों के अवलम्बन से जो जीव (आत्म) प्रदेशों का संकोच - विकोच होता है,' वह वचन योग है। वचनयोग के चार भेद : स्वरूप और लक्षण
मनोयोग की तरह वचनयोग के भी चार भेद षट्खण्डागम में किये गए हैंसत्यवचनयोग, असत्यवचनयोग, उभयवचनयोग और अनुभयवचनयोग ।
वचनयोग के इन चारों भेदों के लक्षण भी वहाँ इस प्रकार दिये गए हैं- स्थानांग आदि आगमों में उक्त जनपद सत्य आदि दश प्रकार के सत्य वचनों में वचन (भाषा) वर्गणा के निमित्त से जो योग- प्रयत्न होता है, उसे सत्य वचनयोग कहते हैं, इससे :विपरीत योग को असत्य (मृषा) वचनयोग कहते हैं। सत्य और मृषा (असत्य) वचनरूप योग को उभय (मिश्र) वचनयोग कहते हैं और जो वचनयोग न तो सत्य रूप हो, और न ही मृषा रूप हो, उसे असत्यामृषावचनयोग है।
असंज्ञी जीवों की जो अनक्षररूप भाषा है, तथा संज्ञी जीवों की जो आमंत्रणी आदि भाषाएँ हैं, वे अनुभय भाषा की कोटि में आती हैं अतः अनुभय भाषारूप वचन. प्रयोग असत्यामृषा वचनयोग समझना चाहिए।
9. (क) धवला १/१,१, ४७/२७९
(ख) वही, १ / १,१,६५ / ३०८
(ग) वही, ७/२, १, ३३/७६
२. (क) षट्खण्डागम १/९/१/५२/२८६
३.
(ख) गोम्मटसार ( जीवकाण्ड) मूल २१७ गा. पृ. ४७४
(ग) मूलाचार ३१४
(क) दसविहे सच्चे पण्णत्ते तं जहा
“जणवय सम्मय-ठवणा, णामेरूवे पडुच्च सच्चे य। यवहार भाव जोगे, दसमे ओवम्मसच्चे ॥"
जनपद सत्य, सम्मतसत्य, स्थापनासत्य, नामसत्य, रूपसत्य, प्रतीत्यसत्य, व्यवहारसत्य
भावसत्य, योगसत्य और औपम्यसत्य ।
- स्थानांग स्थान १०/८९
(ख) दसविहे मोसे पण्णत्ते तं जहा
कोधे माणे माया, लोभे पिज्जे तहेव दोसे य हास भए अक्खाइय, उवघात निस्सिते दसमे ॥" दशविध असत्य - क्रोध- मान-माया-लोभ - प्रेय (राग) उपघातनिश्रित मृषा (असत्य)।
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- वही, स्थान. १०/९० द्वेष - हास्य-भय आख्यायिका
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