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पुण्य और पाप : आस्रव के रूप में ६५१
में भी हमें स्वर्ग आदि के सुख मिल जाएँगे। परन्तु उनका यह विचार मिथ्या है, नितान्त स्वार्थपूर्ण है, एवं भ्रमयुक्त है।'
जप, तप, पूजा-पाठ, आदि के साथ-साथ जब तक सदाचरण नहीं होगा, जीवन नैतिकता से युक्त नहीं होगा, तथा परार्थ सत्कर्मों की प्रवृत्ति नहीं होगी, तब तक आम्नव उनसे कोसों दूर रहेगा, पापकर्म का आनव ही उनके जीवन में घनीभूत होता
जाएगा।
पापकर्मों से जुटाए हुए सुख-साधनों से पुण्यलाभ मिलना कठिन
परन्तु
पाप-आंम्नव को चाहता तो कोई नहीं, न ही पापी कहलाना चाहता है, वैषयिक सुखलिप्सा एवं नितान्त स्वार्थपरायणता उसे पुण्य - आम्रव से दूर ठेलती जाती है। वह आसुरी वृत्तियों से ग्रस्त होकर अहंकार, स्वार्थ, तृष्णा, सुखभोगलिप्सा आदि में प्रवृत्त रहता है। अनुचित रूप से एकत्रित किये हुए तथा हिंसा, ठगी, बेईमानी आदि पापकर्मों से जुटाए हुए सुख के साधन कथमपि पुण्यानव के कारण नहीं हो सकते। एक ओर पापकर्मों के आन से दूर रहा जाए, और दूसरी ओर नीतिधर्म से प्राप्त धन एवं साधन से अपने और अपने परिवार का भरण-पोषण करने के साथ-साथ अभावपीड़ितों, अज्ञानग्रस्तों, दीन-हीनों, पददलितों एवं सात्विक अकिंचन सुपात्रों को सत्कार सद्भावना एवं श्रद्धापूर्वक दान, सहयोग एवं सहायता प्रदान किया जाए तो पुण्य- आनव का लाभ मिल सकता है।
पुण्य और पाप के अन्तर्द्वन्द्व में आसुरीवृत्ति की प्रबलता
परन्तु पुण्य और पाप का पूर्वोक्त अन्तर्द्वन्द्व उसके मन-मस्तिष्क में ऐसी सद्भावना, श्रद्धा, एवं सत्कार भावना एवं पदार्थ-समर्पण भावना आने ही नहीं देता है। आसुरीवृत्ति का धनी व्यक्ति इन बातों को सोच ही नहीं पाता और वह मिथ्याभ्रान्ति का शिकार होकर पुण्यलाभ के बहाने पापकर्मों का उपार्जन करता रहता है।
पापरूप असुरपक्ष के तर्क-कुतर्क
कई लोगों का विचार ही पापानव में रूढ़ हो जाता है, तद्नुसार तर्क-वितर्क उनके मन-मस्तिष्क में रूढ़ हो जाता है।
असुरपक्ष का तर्क यह है कि परलोक किसने देखा है ? इन प्रत्यक्ष सुख-साधनों को छोड़कर परोक्ष सुख के लिए दूसरों को अपना धन, साधन लुटा दें, दान कर दें, या अपनी सुख-सुविधाओं का त्याग कर दें, यह तो सरासर मूढ़ता है। सुख-साधनों के उपभोग का लाभ और आनन्द तो तत्काल मिलता है। अधिकांश व्यक्ति उसी मार्ग पर
१. वही, जनवरी १९७८ में प्रकाशित लेख से भावांश पृ. ५३
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