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पुण्य : कब और कहाँ तक उपादेय एवं हेय ? ६६३
इसलिए पुण्य पाप के उदय को भला-बुरा समझना भ्रम है।” “वास्तव में पुण्य से प्राप्त लौकिक (सांसारिक) सुख परमार्थतः दुःखरूप ही है।" "जिस प्रकार चन्दन की लकड़ी से उत्पन्न अग्नि भी अवश्य जलाती है, उसी प्रकार पुण्य (लौकिक धर्म) से उत्पन्न (सुख) भोग (साधन) भी अवश्यमेव दुःख उत्पन्न करता है।” “आठों ही प्रकार का (शुभाशुभ) समस्त कर्म पुद्गलमय है। उदय में आने पर उन सबका फल दुःखरूप है, ऐसा जिनेन्द्र भगवान् ने कहा है ।"
इसी तथ्य को उजागर करते हुए समयसार में कहा गया है - नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव, ये चारों ही गति के जीव यदि देहोत्पन्न दुःख का अनुभव करते हैं, तो जीवों का वह (अशुद्ध) उपयोग शुभ और अशुभ दो प्रकार का कैसे हो सकता है ? इन्द्र और चक्रवर्ती भी तथाकथित शुभोपयोग मूलक भोगों के द्वारा देहादि की पुष्टि करते हैं, तथा भोगों में रत रहते हुए सुखी जैसे प्रतिभासित होते हैं । किन्तु यदि इस प्रकार से पुण्य नाम की कोई वस्तु विद्यमान भी हो तो भी वह देवों तक में विषय तृष्णा उत्पन्न करती है। जिनकी तृष्णा उदित है, वे जीव विभिन्न तृष्णाओं के कारण संतप्त एवं दुःखी होते हुए मरणपर्यन्त विषय-सुखों की चाह में व्याकुल रहते हैं और अतृप्ति के दुःखों से संतप्त होते तथा दुःखदाह को सहन न करते हुए उन (अपर्याप्त विषयसुखों) का उपभोग करते हैं।” तात्पर्य यह है कि देव आदि के वे विषय-सुख पराश्रित, बाधा पीड़ायुक्त, तथा बन्धन के कारण होने से वास्तव में दुःख रूप ही है।"
. परमार्थ दृष्टि से पाप की तरह पुण्य को भी हेय माना गया
इस अपेक्षा से परमार्थ (निश्चय) दृष्टि से समयसार आदि आध्यात्मिक एवं कर्ममुक्ति प्रेरक ग्रन्थों में पुण्य को भी पाप की तरह हेय बताया गया है। पंचास्तिकाय में स्पष्ट कहा है-जिस साधक का किसी भी द्रव्य के प्रति राग, द्वेष और मोह नहीं है जो सुख-दुःख में समभाव रखता है, उसे न पुण्य का आम्नव होता है न पाप का
वहाँ कहा गया है कि मोक्षार्थी के लिए जब कर्ममात्र ही त्याज्य है, तब फिर वहाँ • पुण्य को अच्छा और पाप को बुरा कहने की बात ही कहाँ रही ? क्योंकि समस्त कर्मों का
१. (क) 'नहि कर्मोदयः कश्चित जन्तोर्यः स्यात् सुखावहः । सर्वस्य कर्मणस्तत्र वैलक्षण्यात् स्वरूपतः ॥” (ख) मोक्षमार्ग प्रकाश ४ /१२१/२१
(ग) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष भा. ३ पृ. ६२ (घ) धर्मतोऽपि भवो भोगो दत्ते दुःख-परम्परा । चन्दनादपि सम्पन्नः पावकः प्लोषते न किम् ?
२. जस्स ण विज्जदि रागो, दोसो मोहो य सव्वदव्वेसु । णासवदि सुहं असुहं समसुहदुक्खस्स भिक्खुस्स ॥
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- पंचाध्यायी (उ.) २५०
- योगसार अ./९/२५.
- पंचास्तिकाय १४२
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