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६६२ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आम्रव और संवर (६).
अज्ञानी मोहवश पुण्य को अच्छा और पाप को बुरा कहता है, ज्ञानी के लिए दोनों का संसर्ग निषिद्ध
इसी तथ्य को समयसार वृत्ति (आत्मख्याति) में स्पष्ट करते हुए कहा है- " जिस प्रकार कुशील (मनोरम और अमनोरम) हथिनी रूप कुट्टनी के साथ हाथी का राग (मोह) और संसर्ग उसके बन्धन का कारण होता है, उसी प्रकार कुशील अर्थात्शुभाशुभ कर्मों के साथ राग और संसर्ग भी बन्धन का कारण है। यही कारण है कि ज्ञानी पुरुषों ने शुभाशुभ कर्मों के साथ राग और संसर्ग करने का निषेध किया है।"
इसी तथ्य को एक रूपक द्वारा समझाया गया है - "शूद्रा के उदर से दो पुत्रों का जन्म हुआ। उनमें से एक ब्राह्मण के यहाँ पला, जबकि दूसरा शूद्र के यहाँ पला । जो ब्राह्मण के यहाँ पला, वह-‘मैं ब्राह्मण हूँ', इस प्रकार के ब्राह्मणत्व के अभिमानवश मदिरा को छूता तक नहीं, जबकि शूद्र के यहाँ पला हुआ पुत्र, 'मैं स्वयं शूद्र हूँ' यों मानकर मदिरा को पवित्र मानकर निःसंकोच पीता रहता है। यद्यपि ये दोनों ही साक्षात् शूद्र हैं, तथापि जातिभेद के भ्रमवश दो तरह की प्रवृत्ति करते हैं। उनके अन्तर् में तत्त्वदृष्टि का प्रकाश नहीं है।
इसी प्रकार पुण्य और पाप दोनों ही मोह मदिरा के पुत्र हैं। दोनों में से एक प्रशस्तराग को अपनाता है, दूसरा अप्रशस्त राग को पहला मोहपुत्र प्रशस्तराग को अपनाकर भी समझता है कि मैं मोहमदिरा से दूर हूँ, जबकि दूसरा तो अप्रशस्त रागवश, मोहमदिरा को छक कर पीता है। इस दृष्टि से (पुण्य और पाप) दोनों ही पूर्वोक्त तत्त्वदृष्ट्या समान हैं, फिर भी मोहदृष्टि के कारण अज्ञानी जीव भ्रमवश इनमें भेद देखकर पुण्य को अच्छा और पाप को बुरा समझता है।"
पुण्य और पाप दोनों ही आकुलता एवं दुःख के कारण हैं
पुण्य और पाप दोनों को दुःख रूप या दुःख के कारण रूप बताते हुए पंचाध्यायी, योगसार, मोक्षमार्ग-प्रकाश एवं समयसार में तत्त्वदृष्टि से विश्लेषण करके कहा है"कोई भी कर्म का उदय ऐसा नहीं है, जो जीव को आत्मिक सुख प्राप्त कराने वाला हो, क्योंकि स्वभाव से (पुण्य-पापरूप) सभी कर्म आत्मा के स्वभाव से विलक्षण हैं।" " “ पुण्य और पाप दोनों ही आकुलता के कारण हैं। जहाँ आकुलता है, वहाँ परमार्थतः दुःख है।
१. “कुशील शुभाशुभ कर्मभ्यां सह रागसंसर्गे प्रतिषिद्धौ, बन्धहेतुत्वात्, कुशील मनोरमामनोरम करेणुकुट्टुनी-राग-संसर्गवत्।”
- समयसार (आ.)१४७.
२. एको दूरात्त्यजति मदिरां ब्राह्मणात्वाभिमानाद् अन्यः शूद्रः स्वयमहमिति स्नाति नित्यं तयैव । द्वाप्तौ युगपदुदरान्निर्गतौ शूद्रिकायाः । शूद्रौ साक्षादपि च चरतो जाति भेद भ्रमेण ॥
-समयसार (आ.) १४४ क- १०१
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