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६६४ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) त्याग होने पर ही सम्यग्दर्शन आदि तीनों निज स्व-भावरूप में स्थिर होने से, स्व-स्वरूपरमण एवं स्वभाव परिणमन होने से मोक्ष के कारणभूत अकर्म-अवस्था से प्रतिबद्ध पूर्ण आध्यात्मिकरस से युक्त केवलज्ञान आदि (अनन्तचतुष्टय) स्वयमेव दौड़ा हुआ चला आता है।' - उत्तराध्ययन सूत्र के समुद्रपालीय अध्ययन में भी कहा गया है-"समुद्रपाल मुनि पुण्य और पाप (शुभ और अशुभ) दोनों ही प्रकार के कर्मों का क्षय करके (संयम) में निश्चल होकर अथवा निष्कम्प अवस्था को प्राप्त कर सर्वथा को दुःखों आदि से मुक्त होकर समुद्र के समान विशाल संसार प्रवाह (महाभवीघ) को तैर (पार) करके अपुनरागम स्थान (मोक्ष) में गए। ज्ञानी पाप की तरह पुण्य को भी हेय, अनादेय, अनादरणीय समझता है .
इसलिए वीतराग जिनेन्द्र प्रभु का यह उपदेश है कि रागी जीव (चाहे वह प्रशस्तरागी हो या अप्रशस्तरागी) कर्म बांधता है, जो विराग सम्पन्न (राग-रहित) होता है, वह कर्म से छूटता है। इसलिए (हे मुमुक्षु !) तू कर्मों में प्रीति मत कर।" तात्पर्य यह है कि “सामान्यतया राग के निमित्त से होने के कारण शुभ और अशुभ दोनों ही कर्म बन्ध के हेतु बनते हैं। इसलिए वीतराग पुरुष एवं जिनोक्त आगम दोनों ही शुभ-अशुभ दोनों कों को अपनाने का निषेध करते हैं।" - इसीलिए द्रव्यसंग्रह (टी.) में कहा गया है-“सम्यग्दृष्टि जीव के लिए पुण्य और पाप दोनों ही हेय हैं।” अर्थात् वह पाप की इच्छा तो करता ही नहीं है, पुण्य की भी चलाकर इच्छा नहीं करता। ___पंचाध्यायी में इसे और स्पष्ट करते हुए कहा गया-"जैसे सम्यग्दृष्टि के लिए पूर्वोक्त इन्द्रियजन्य सुख और (मिथ्या) ज्ञान आदेय नहीं होते, वैसे ही आत्मप्रत्यक्ष होने के कारण समस्त कर्म भी आदेय नहीं होते।"
___ इसीलिए उच्चभूमिकारूढ़ ज्ञानी पुरुषों ने पुण्य को हेय बताते हुए तिलोयपण्णत्ति, योगसार, समयसार, मोक्षपाहुड, परमात्म-प्रकाश, नियमसार आदि आध्यात्मिक ग्रन्थों में जैन दर्शन की निश्चयनय की दृष्टि से कहा-"परमार्थ से अनभिज्ञ
१. संन्यस्तमिदं समस्तमपि तत् कर्मैव मोक्षार्थिना।
संन्यस्ते सति तत्र का किल कथा पुण्यस्य पापस्य वा॥ सम्यक्त्वादि निज-स्वभाव-भवनान्मोक्षस्य हेतुर्भवन्।
निष्कर्म्य-प्रतिबद्ध मुद्धतरस ज्ञानं स्वयं धावति॥ -समयसार (आ.) १६१/क. १०९ २. "दुविहं खदेऊण य पुण्णपावं, निरंगणे सव्वओ विप्पमुक्के।
तरिता समुदं व महाभवोघं, समुद्दपाले अपुणागमे गए॥" -उत्तराध्ययनसूत्र २१/२४
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