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पुण्य और पाप : आसव के रूप में
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वाली अन्य कर्म-प्रकृतियों के अनुभाग का बन्ध गौणरूप से होता है। आशय यह है कि जिस समय योग द्वारा जिन कर्मप्रकृतियों का प्रदेशबन्ध सम्भव है, उसी समय कषाय द्वारा उतनी ही कर्मप्रकृतियों का अनुभागबन्ध भी सम्भव है।'' अन्तर्भूमि में पुण्य-पाप का देवासुर-संग्राम
वास्तव में पुण्य और पाप दोनों ही प्रमत्त संसारी जीव के मन-वचन-कायामय जीवन के क्षेत्र पर छाये रहते हैं। सर्वथा पुण्य ही पुण्य रहे, पाप का अंशमात्र भी न रहे, यह निम्नस्तरीय भूमिका में होना कठिन है। इसी प्रकार सर्वथा पाप ही पाप रहे, उसमें पुण्य का अंश मात्र भी न रहे, यह भी निम्नतमस्तर की भूमिका में असम्भव है। इसीलिए पुराणों में एक कल्पना दी गई है-देव-असुर संग्राम की। प्रमत्त संसारी जीव के तन-मन-वचन में देव भी रहते हैं और असुर (दानव) भी। दोनों आस्रव जीवन के इस अखाड़े में मल्लयुद्ध करने के लिए तैयार रहते हैं। कभी कोई जीतता है, और कभी कोई हारता है। इस देवासुर संग्राम का प्रारम्भ और अन्त : कब और कैसे?
इस देवासुर-संग्राम का अन्त केवल बुद्धि के सहारे नहीं हो सकता, क्योंकि दोनों ही पक्ष अपने-अपने दावे पेश करते हैं और अपनी-अपनी युक्ति, तर्क, सामर्थ्य और विशेषता का प्रतिपादन करते हैं। इनमें से कोई अपनी हार नहीं मानता। क्षमता किसी में भी कम नहीं। यह द्वन्द्व अनन्तकाल से चला आ रहा है। यह अन्तर्द्वन्द्व है। इसे कर्मविज्ञान की भाषा में पुण्य-पाप का द्वन्द्व कह सकते हैं। पाप और पुण्य दोनों में से किसकी प्रबलता कब तक?
___ साधक जब तक ११वें गुणस्थान की भूमिका तक नहीं पहुंच जाता, तब तक कषायों के वेग के कारण पाप और पुण्य का अन्तर्द्वन्द्व मचा रहता है। यह बात दूसरी है कि सातवें अप्रमत्त गुणस्थान की भूमिका से लेकर तेरहवें गुणस्थान की भूमिका तक के स्वामी पाप का दाँव बिलकुल नहीं चलने देते, उसे जीतने नहीं देते। वे पाप को जरा भी प्रश्रय नहीं देते। पुण्य को भी चलाकर उपार्जन नहीं करते, न ही प्रश्रय देते हैं, अगर पहले से पुण्य बंधा हुआ हो, और उसके उदय से कोई शुभ या अनुकूल फल प्राप्त हो गया हो तो उसे भी समभाव से भोग लेते हैं। उसमें आसक्ति बहुत ही कम, तथा कषाय मन्द होता है, दसवें गुणस्थानी तक में। उससे आगे तो कषाय भी नहीं होते। राग की मात्रा ग्यारहवें गुणस्थान तक उपशान्तदशा में होती है। बारहवें में तो उसका भी अत्यन्त क्षय हो जाता
१. बन्ध के विषय में अगले (बंध के) प्रकरण में विस्तृत विवेचन देखें। २. अखण्ड ज्योति जनवरी १९७८ में प्रकाशित 'अन्तर्जगत् का देवासुर संग्राम' लेख से भावांश .. ग्रहण पृ. ५२
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