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६५४ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) पापानवपरायण : पुण्य-सम्पदा से वंचित : क्यों और कैसे?
न्याय, नीति तथा अहिंसादि धर्मों के आचरण से, तथा स्वार्थ को गौण करके परार्थ और परोपकारमय जीवन जीने से उन्हें जो पुण्यसम्पदा प्राप्त हो सकती थी और आगे चलकर उसी से सर्वभूतात्मभूत बनने एवं आत्मौपम्य भाव रखने से कर्मों का संवर एवं आंशिक क्षय (निर्जरा) हो सकता था, उससे वे वंचित रहते हैं।' पुण्यासव-परायण देववर्ग का आत्मौपम्य मूलक चिन्तन
पुण्यासव-परायण देववर्ग का चिन्तन लगभग ऐसा ही है। वे सबके सहयोगी बनते हैं। दूसरों के उपकार के लिए स्वार्थ का त्याग करते हैं, अपने पास प्राप्त सम्पत्ति
और साधनों का उपभोग अकेले नहीं, यथायोग्य संविभाग करके करते हैं। सबके साथ मिल-बांट कर जीवन जीते हैं। जीओ और जीने दो' का स्वर्णसूत्र उनके तन-मन-वचन में रमा रहता है। पुण्यानवी व्यक्तियों को पुण्यलाभ और परम्परा से सर्वकर्म मुक्ति की उपलब्धि
ऐसे व्यक्तियों को ही वास्तविक पुण्यलाभ मिलता है। उन्हें आत्मौपम्यभाव की मनःस्थिति और स्वर्गीय परिस्थिति का लाभ भी मिलता है। फलतः आगे चलकर भव-बन्धनों से मुक्ति तथा अपूर्णता से पूर्णता की प्राप्ति का मार्ग उन पुण्यात्माओं को मिल जाता है। उन्हें आत्मसन्तोष और आत्मशक्ति की उपलब्धि इस जन्म में तो मिलती ही है, अगले जन्मों में भी संतोष और आत्मशान्ति का वातावरण मिलता है।
प्रबलपुण्य के फलस्वरूप उच्च देवलोकों में उनका जन्म-मरण (गति), शरीरधारण, परिग्रहवृत्ति, एवं अहंकार आदि कषाय भी मन्द-मन्दतर होता जाता है, बल्कि कई पुण्यशाली व्यक्ति तो बीच में सिर्फ एक देवभव करके फिर मनुष्य-जन्म प्राप्त करके सर्वकर्म-मुक्ति (मोक्ष) उपलब्ध कर लेते हैं। पुण्यशाली देववर्ग का सूझबूझभरा चिन्तन
पुण्यशाली देववर्ग का तर्क यह है कि इस सुरदुर्लभ मानवजन्म को पाकर भी पुनः उसी संसार की मोहमाया में लिपट कर अपने आपको तथा अपने चरम-लक्ष्य को भूल जाना ठीक नहीं है। इस सुरदुर्लभ सौजन्यभरे अवसर को निःस्वार्थ पुण्य कार्यों में लगाने पर ही जीवन की सार्थकता है। सुखशान्ति की अकांक्षा भी आन्तरिक उत्कृष्टता और स्व-पर-उपकार की साधना के सहारे ही पूरी हो सकती है। सुख-साधनों की मृगतृष्णा में भटकते रहने से थकान, खीज और असन्तुष्टि ही पल्ले पड़ती है। सच्ची समृद्धि उन्नत
१. 'सव्वभूयप्पभूयस्स समं भूयाई पासओ।
पिहियासवस्स दंतस्स पावकम्मं न बंधइ ।'
-दशवैकालिक ४/९
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