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६५६ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कमों का आमव और संवर (६) पुण्यानव और पापासव में बहुत बड़ा अन्तर
पुण्यासव और पापासव में एक बहुत बड़ा अन्तर यह है कि पापानव से तो कषाय तीव्र से तीव्रतर होता जाता है। सांसारिक पदार्थों की लालसा बढ़ जाने से असन्तोष, अतृप्ति एवं आकांक्षा की आग उसके हृदय को जलाती रहती है। पुण्य के उत्तरोत्तर बढ़ने के साथ ही सद्बुद्धि और दूरदर्शिता भी बढ़ने की सम्भावना रहती है, जिससे व्यक्ति की आकांक्षा, लालसा और अतृप्ति उत्तरोत्तर मन्द-मन्दतर होती जाती है, रागद्वेष से वह कम प्रभावित होता है। फलतः पुण्यशाली के कर्मों की रज अल्पतर होने की संभावना है, जबकि पापी के जीवन में कर्मों की रज उत्तरोत्तर वृद्धिंगत हो जाने की संभावना ही अधिक है। पुण्य और पाप दोनों आम्नवों में से पुण्य का ही चुनाव करो.
इसलिए पुण्य और पाप इन दोनों आप्नवों में से निम्न गुणस्थान की भूमिका वालों को किसी एक का चुनाव करना हो तो पुण्य का ही चुनाव करना चाहिए। इससे भविष्य में आध्यात्मिक विकास के मार्ग पर चढ़ने का शुभ अवसर पुण्यराशि के धनी को अनायास ही प्राप्त हो सकता है। क्योंकि पुण्य प्रबल होने पर ही मनुष्यजन्म, आर्यक्षेत्र, उत्तमकुल, परिपूर्ण अंगोपांग-इन्द्रियाँ, दीर्घआयुष्य, महापुरुषों का सत्संग, धर्मश्रवण, आध्यात्मिक ज्ञान एवं धर्माचरण के पथ पर चलने की प्रेरणा एवं पराक्रमशीलता प्राप्त हो सकती है। संसारयात्रा में पुण्य का आश्रय लेना और मोक्षयात्र में दोनों का त्याग करना हितकर
मुमुक्षु एवं आत्मार्थी का चरमलक्ष्य तो पुण्य और पाप इन दोनों से मुक्त होकर एकमात्र संवर-निर्जरारूप धर्म एवं मोक्ष में पुरुषार्थ करना है। परन्तु इस लम्बी दीर्घकालीन संसारयात्रा में पुण्यरूपी सुदृढ़ एवं अच्छिद्र नौका के सहारे से वह संसार समुद्र के उस पार न पहुँच जाए, तब तक तो पापरूपी जर्जर एवं सच्छिद्र नौका के सहारे के बजाय, पुण्यरूपी नौका का सहारा लेना ही हितावह है। यदि वह इस दीर्घकालीन संसारयात्रा में पापरूपी नौका की तरह पुण्यरूपी नौका को भी छोड़ देगा तो संसार समुद्र में डूब जाएगा और 'दुविधा में दोनों गए, माया मिली न राम' वाली कहावत चरितार्थ हो जाएगी। अतः संसार समुद्र को पार करने के लिए पापासवरूपी जलयान का आश्रय लेने के बदले पुण्यासवरूपी जलयान का आश्रय लेना हितकर है।
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