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६३६ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आस्रव और संवर (६)
‘आप्तमीमांसा' में इसका स्पष्टीकरण करते हुए कहा गया है-'यदि दूसरे को सुख या दुःख उपजाने मात्र से क्रमशः पुण्य-पाप होने का नियम होता तो कांटे, विष, छुरी, तलवार आदि अचेतन (जड़) पदार्थों को पाप और दूध, फल, रोटी आदि अचेतन पदार्थों को पुण्य हो जाता। तथा वीतरागी मुनि को ईर्यासमितिपूर्वक गमन करते हुए कदाचित् क्षुद्रजीवों के अकस्मात् वध हो जाने से पापासव या पापबन्ध हो जाता।
यदि स्वयं को सुख या दुःख उपजाने से पुण्य-पाप का आनव हो जाने का नियम होता तो वीतराग निर्ग्रन्थ मुनि तथा विचारक विद्वान् भी अशुभ कर्म के (आस्रव या) बन्ध के भाजन हो जाते; क्योंकि वे भी इस प्रकार के निमित्त बन जाते हैं। अतः यही मानना उचित है कि स्व और पर, दोनों, सुख या दुःख में निमित्त होने के कारण भी, उनके परिणाम अगर विशुद्ध हैं, या संक्लेशकर हैं, तो उनके कारण ही उनसे प्रादुर्भूत कार्य पुण्य-पाप आस्रव होते हैं, पुण्य-पाप एकान्ततः परपदार्थाश्रित नहीं हैं।' पुण्य और पाप में अन्तरंग की प्रधानता है। क्रिया की अशुभता के आधार पर पापसव का उपार्जन . अशुभ (पाप) आस्रव के कारणों का उल्लेख करते हुए राजवार्तिक में कहा गया है-मिथ्यादर्शन, पिशुनता (चुगली), अस्थिर-चित्त-स्वभावता, झूठे बांट,तराजू रखना (नाप-तौल में गड़बड़ करना), कृत्रिम स्वर्ण, मणि, रत्न आदि बनाना, झूठी साक्षी देना, अंगोपांगों का छेदन करना, वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श का विपरीत रूप में भावित करना, हिंसाजनक मंत्र, पांजरा आदि बनाना, कपट की प्रचुरता, परनिन्दा, आत्मप्रशंसा, मिथ्याभाषण, परद्रव्यहरण, महारम्भ, महापरिग्रह, (शौकीन) उद्धतवेषधारण, रूपमद, कठोर-असभ्य भाषण, गाली देना, व्यर्थ बकवास करना, वशीकरण प्रयोग (मारण, मोहन, उच्चाटनादि प्रयोग) करना, सौभाग्य का दुरुपयोग करना, दूसरों में कुतूहल उत्पन्न करना, आभूषणों में आसक्ति, मन्दिर गन्ध, माल्य या धूपादि का चुराना, देर तक उपहास करना, ईंटों का भट्टा लगाना, वन में दावाग्नि लगाना, प्रतिमायतन का विनाश करना, आश्रय या आधार का विनाश करना, आराम-उद्यान को नष्ट करना, तीव्र क्रोध, तीव्र मान, तीव्र माया, तीव्र लोभ और पापकर्म-जीविका आदि भी अशुभ (पाप) आम्रव के कारण हैं।
१. (क) सर्वार्थसिद्धि ६/११/३३०
(ख) आप्तमीमांसा ९२-९५ २. (क) राजवार्तिक ६/२२/४/५२८ : “च शब्दः क्रियतेऽनुक्तस्यासवस्य समुच्चयार्थः। कः
पुनरसौ? मिथ्यादर्शन-पिशुनता-ऽस्थिरचित्तस्वभावता-कूटमान-तुलाकरण - पाप कर्मोपजीवनादिलक्षणः। स सर्वोऽपि अशुभस्य नाम्न आम्रवः।"
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