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पुण्य और पाप : आसव के रूप में ६३५
अपराधमय हैं, इस कारण विषकुम्भवत् हैं। अतः पाप भी विषकुम्भ के समान सदैव हेय है। क्योंकि इसमें चारित्र का लेशमात्र भी न होने से यह (पाप) अशुभोपयोगरूप' होने से अतीव हेय है।" । - इसीलिए उत्तराध्ययनचूर्णि में पाप का निर्वचन किया गया है जो आत्मा को पाश (कठोरबन्धन) में बांधता है, अथवा पतित कर देता है-गिरा देता है, वह पाप है।)
'मरणसमाधि' (प्रकीर्णक) में कहा गया है-'जैसे जीवितार्थी के लिए विष हितकर नहीं होता, वैसे ही कल्याणार्थी के लिए पाप हितकर नहीं है।' पुण्य-पाप वस्तु या क्रिया के आधार पर ही नहीं, कर्ता के परिणाम के आधार पर
पुण्य-आसव और पापासव का निर्णय किसी वस्तु या क्रिया के आधार पर ही नहीं, अपितु कर्ता के भावों के आधार पर भी मुख्यतया होता है। इस विषय में हमने तृतीय खण्ड के 'कर्म के शुभ, अशुभ और शुद्धरूप' शीर्षक निबन्ध में बहुत ही विस्तार से दृष्टान्त, युक्ति, प्रमाणपूर्वक प्रतिपादन किया है। सुख या दुःख उपजाने मात्र से भी पुण्य-पाप का निर्णय नहीं होता ... . किसी को सुख या दुःख उपजाने मात्र से भी पुण्य या पाप नहीं हो जाता, अपितु उसके पीछे कर्ता का आशय तथा कभी-कभी उस प्रवृत्ति (क्रिया या कर्म) का भी शुभाशुभत्व देखा जाता है। सर्वार्थसिद्धि में इस विषय को एक दृष्टान्त देकर समझाया गया है-जैसे कोई दयालु वैद्य किसी मायादि-रहित संयमी साधु के फोड़े की चीर-फाड़ करके मरहम पट्टी करता है। यद्यपि उस समय उस संयमी मुनि को दुःख देने में वह वैद्य निमित्त होता है, तथापि उस वैद्य के परिणाम उन्हें दुःख देने के नहीं, अपितु सुख (साता) उपजाने के होते हैं। अतः दुःखोत्पादन के इस कारणमात्र से पापकर्मबन्ध तथा उसका पूर्वकारणरूप पापासव नहीं होता, अपितु पुण्यासव एवं पुण्यबन्ध होता है। वस्तुतः पुण्य-पाप-आम्रव में अन्तरंग भावों, शुभ-अशुभ-परिणामों या शुभाशुभ उपयोगों की ही प्रधानता है। १. (क) “यस्तावदज्ञानिजन-साधारणोऽप्रतिक्रमणादिः संशुद्धात्मसिद्ध्यभावास्वभावत्वेन
स्वयमेवापराधत्थद् विषकुम्भ एव।" -समयसार (आत्मख्याति वृत्ति) ३०६ (ख) ततश्चारित्रलवस्याप्यभावादत्यन्त हेय एवायमशुभोपयोग इति।।
-प्रवचनसार त. प्र. १२ ... (ग) पाशयति पातयति वा पापम्।
-उत्तराध्ययन चूर्णि २ (घ) न हु पावं हवइ हियं, विसं जहा जीवियत्थियस्स। २. विस्तृत विवेचन के लिए 'कर्म के शुभ, अशुभ और शुद्धरूप' शीर्षक लेख देखें-कर्मविज्ञान प्रथम . भाग पृ. ५२९ से
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