________________
पुण्य और पाप : आम्रव के रूप में ६४५ इसी प्रकार अजीवाधिकरण भी निर्वर्तना, निक्षेप, संयोग और निसर्ग के क्रमशः दो, चार, दो और तीन भेद रूप हैं।
जीव और अजीव दोनों से शुभ या अशुभ क्रिया निष्पन्न होती है। अकेला जीव या अकेला अजीव कुछ नहीं कर सकता।
द्रव्याधिकरण है-जीव-व्यक्ति तथा अजीव वस्तु, तथा भावाधिकरण है-जीव के कषाय आदि परिणाम तथा छुरी आदि निर्जीव (अजीव) वस्तु की तीक्ष्णताअतीक्ष्णता रूप शक्ति या शस्त्र का प्रयोग करने की शक्ति आदि।'
योग द्वारा बाह्य क्रिया में समानता होने पर भी शुभ-अशुभकर्म के आसव तथा बन्ध में असमानता के कारणरूप में सूत्र में तीव्र-मन्द, ज्ञात-अज्ञातभाव, वीर्य, एवं अधिकरण आदि की विशेषता का प्रतिपादन किया है।
- वास्तव में योगों की शुभाशुभता के लिए केवल शुभ-अशुभ परिणाम ही आधार हैं, जिन्हें ही क्रमशः पुण्यासव और पापासव कहा जाता है, किन्तु कर्मबन्ध की तीव्रता-मन्दता के लिए विशेष निमित्त काषायिक परिणामों की तीव्रता-मन्दता ही है। सज्ञात-अज्ञात प्रवृत्ति या शक्ति की विशेषता या शस्त्रप्रयोग-विशेषता में काषायिक परिणामों की तीव्रता-मन्दता कारण है। शुभ-अशुभ कार्य से सम्बन्धित अन्य बातें . जब कोई सांसारिक जीव दान, परोपकार आदि शुभकार्य अथवा हिंसादि अशुभ कार्य करने में प्रवृत्त होता है, तब वह क्रोध या मान आदि किसी कषाय से प्रेरित होता है। कषाय-प्रेरित होने पर भी कभी तो वह स्वयं उस शुभ या अशुभ कार्य को करता है, कभी दूसरे से करवाता है, अथवा दूसरे के द्वारा किये गए कार्य की प्रशंसा और अनुमोदना
करता है।
इसी प्रकार वह कदाचित् उस कार्य को-मन, वचन या काया इन तीनों योगों में से किसी एक, दो या तीनों योगों से जोश में आकर कार्य प्रारम्भ (संरम्भ) करता है अथवा उस कार्य के लिए साधन जुटाता (समारम्भ करता) है, या कार्य करने में जुट जाता (आरम्भ करता) है। अर्थात् उस कार्य की संकल्पात्मक सूक्ष्म अवस्था से लेकर उसे प्रकट रूप में पूर्ण करने तक की तीन अवस्थाएँ क्रमशः संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ की सूचक हैं। इन तीनों में से वह किसी एक, दो या तीनों अवस्थाओं से युक्त होता है। जीवाधिकरण की १०८ अवस्थाएँ ... संसारी जीव शुभ या अशुभ प्रवृत्ति करते समय पूर्वोक्त भाव जीवाधिकरण की १. (क) तत्त्वार्थसूत्र अ. ६ सू. ७ | ... (ख) तत्त्वार्थसूत्र विवेचन (पं. सुखलाल जी) से पृ. १५३-१५४
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org