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पुण्य
और पाप : आनव के रूप में ६३३
किस प्रकार के मन-वचन-काययोग से शुभाम्नव होता है?
‘ज्ञानसार’ में मन-वचन-काययोग से पुण्याम्नव की मीमांसा करते हुए कहा गया
यम (व्रत), प्रशम, निर्वेद (वैराग्य), तत्त्वों का चिन्तन, इत्यादि का जिस मन में आलम्बन हो, तथा जिस मन में मैत्री, प्रमोद, कारुण्य एवं माध्यस्थ्य, ये चार भावनाएँ हों, वही मन शुभानव को उत्पन्न करता है । सांसारिक (सावद्य) व्यापारों से रहित तथा श्रुतज्ञान के आलम्बन से युक्त एवं सत्यरूप पारिणामिक वचन भी शुभानव के लिए होते हैं। भलीभांति कायगुप्ति से सुगुप्त (सुरक्षित या वशीभूत) काय से तथा अहर्निश कायोत्सर्ग से संयमी मुनि काययोग द्वारा शुभकर्म (पुण्य) का संचय करते हैं। '
शुभ-अशुभ योग के हेतु ही पुण्य-पापास्रव के हेतु हैं
सर्वार्थसिद्धि के अनुसार - "काया, वाणी और मन की सरलता तथा इनकी अविसंवादिता, ये शुभ योग के कारण हैं, जबकि अशुभयोग के कारण हैं - काय, वचन और मन की वक्रता एवं इनकी विसंवादिता । शुभयोग पुण्यास्रव का और अशुभयोग पापास्रव का कारण है।”
पुण्यास्रव के विविध हेतु
‘राजवार्तिक' में कहा है-धार्मिक पुरुषों के दर्शन करना, उनका आदर-सत्कार करना, उनके प्रति सद्भाव रखना, उपनयन, संसार के कारणों से डरना, प्रमाद का त्याग करना इत्यादि सब शुभनामकर्म (पुण्यकर्म) के आनव के कारण हैं।
'तत्त्वार्थसार' में व्रताचरण को पुण्यकर्मानव का कारण बताया है। योगसार में अरहन्त आदि पंच परमेष्ठियों के प्रति श्रद्धा-भक्ति, समस्त जीवों पर करुणा और पवित्र-चारित्री के प्रति अनुराग (प्रीति) करने से पुण्यानव और पुण्यबन्ध बताया है। शुभ परिणाम पुण्य, अशुभ परिणाम पाप
प्रवचनसार के अनुसार पुण्यरूप पुद्गल (कर्म) के बन्ध का कारण होने से
१. ज्ञानसार २/३,५,७
२. (क) काय वाङ्मनसामृजुत्वमविसंवादनं च तद्विपरीतम् । - सर्वार्थसिद्धि ६/२३/३३७ (ख) धार्मिक- दर्शन-संयम-सद्भावोपनयन-संसरणभीरुता, प्रमादवर्जनादिः ।
- राजवार्तिक ६/२३/१/५२८
- तत्त्वार्थसार ४/५९
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तदेतच्छुभनामकर्मानवकारणं वेदितव्यम्।”
(ग) “ व्रतात् किलानवेंन् पुण्यम् ।” (घ) अर्हदादौ पराभक्तिः, कारुण्यं सर्वजन्तुषु ।
पावने चरणे रागः, पुण्यबन्ध-निबन्धनम् ॥
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- योगसार अ. ४ / ३७
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